भक्तिकाल के संत कवि
(माया, मोह, ढ़ोंग, पाखंड और कर्मकांड पर कबीर दास का तीखा प्रहार)
(चतुर्थ किश्त)
-रामबाबू नीरव
संत कबीर दास तत्वज्ञानी, युगद्रष्टा, युग निर्माता और सशक्त समाज सुधारक थे. उन्होंने समाज में जो कुछ भी अनर्गल होते हुए देखा उसका तीव्र विरोध किया. संत कबीर ने समाज में व्याप्त अनाचार, कर्मकांड अंधविश्वास, ढ़ोंग, पाखंड, असपृश्यता, शोषण, उत्पीड़न आदि के साथ साथ धर्म की आड़ में होने वाले सभी बुराइयों के प्रति लोगों को सचेत करते हुए भक्ति की एक नयी परंपरा की बुनियाद रखी. जिस परंपरा को उनके अनुयायियों ने कबीर पंथ का नाम दिया. उनके इस पंथ में हिन्दुओं के साथ साथ मुस्लिम भी थे. वे सही मायने में मानवतावादी और समतावादी सोच के संत थे कबीर अपने हाथ में लुकाठी (जलती हुई मशाल) लेकर सीना ठोंकते हुए कहते हैं -
"कबीरा खड़ा बाजार में लिये लुकाठी हाथ।
जो घर घर फूंके आपनौ, चले हमारे साथ।।"
अर्थात : मैं इस संसार रूपी बाजार में जलती हुई मशाल लिए खड़ा हूँ, जिस किसी में भी अपना घर जलाने का साहस हो (यहाँ घर से आशय अहंकार तथा अज्ञानता रूपी अंधकार से है.) वही मेरे साथ चले. यहाँ "कबीरा खड़ा बाजार में" से उनका तात्पर्य है कि यह संसार एक मायावी बाजार है. यहाँ लोग अपने अपने कर्मों का सौदा करते हैं. यह ऐसा बाजार है, जहाँ पुण्य भी बिकता है और पाप भी. खरीदने वाले पुण्य भी खरीदते हैं और पाप भी. कबीर साहेब सचेत करते हुए कहते हैं कि अब तुम बताओ कि तुम क्या खरीदना चाहते हो, पुण्य याकि पाप? पाप के सौदागर तुम्हें तरह तरह के प्रलोभन देकर तुम्हें पाप के दलदल में फंसाने की चेष्टा करेंगे. पुण्य का राह थोड़ा कठिन तो है, मगर वहाँ परम सुख है.
कबीर सबके मित्र हैं,सबके अपने है.
"कबीरा खड़ा बाजार में सबकी मांगे खैर।
ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर।।"
जो सज्जन होते हैं, वे सभी से प्रेम करते हैं. क्यों किसी से बैर करें. बैर में रखा ही क्या है. मित्रता करने वाले सबके अपने होते हैं, सबके प्रिय होते हैं. इसलिए सुखमय जीवन जीना है तो मिलजुल कर रहो, यही मानवीय संवेदना और जीवन का यथार्थ.
अब जरा संत कबीर के उस विद्रोही तेवर पर भी एक नज़र डाल लिया जाए जिसमें वे हिन्दुओं के उस पाखंड पर तीव्र प्रहार किया है, जिसमें नीरिह जानवरों की निर्ममता पूर्वक हत्या किये जाने वाले घृणित प्रथा को बलिदान (बलि प्रथा) का नाम दिया -
"साधो, पांडेय निपुन कसाई।
बकरि मारि भेड़ि को धाय, दिल में दरद न आई।
करि स्नान तिलक दै बैठे, विधि सों देव पुजाई ।
आतन मारि पलक में विनसे, रुधिर की नदी बहाई।
अति पुनीत ऊंचे कुल कहिए।
सभा माहि अधिकाई।
इनसे दिच्छा हर कोई मांगे।
हंसि आये मोहि भाई।
पाप कटन को कथा
सुनावै,
काम करावै नीचा।
बूड़त दोए परस्पर दीखे,
गहे भैहिं जस खींचा।
गाय वधै सो तुरक कहाए
यह क्या इनसे छोटे।।
कहे कबीर सुनो भाई साधो,
कलियुग में ब्राह्मण खोटे।"
अर्थात, हे साधो, ये पॉंडे (पुजारी) बड़े कुशल कसाई हैं. बकरी का बलिदान करके भेड़ की ओर लपकते हैं. इनके दिल में दया नाम मात्र को भी नहीं है. स्नान करके, तिलक लगाकर बैठते हैं और बड़े विधि विधान से पूजापाठ करते हैं. ये अपनी आत्मा को क्षण मात्र में मार देते हैं और खून की नदियाँ बहा देते हैं. ये बड़े पवित्र हैं और किसी कुलीन घराने से संबंध रखते हैं. सभा में इनका बड़ा मान है. सब लोग इनसे दीक्षा लेते हैं और मुझे यह सब देखकर बड़ी हंसी आती है. लोगों के पाप काटने के लिए ये उन्हें कथा सुनाते हैं और उनसे नीचा कर्म करवाते हैं. मैंने दोनों को एक साथ डूबते हुए देखा है. जिसको इन्होंने सहारा दिया, उसी को ले डूबे. जो गाय को मारे वह मुसलमान कहलाता है, लेकिन क्या ये पांडेय उनसे कम हैं? कबीर कहते हैं कि इस कलयुग में ब्राह्मण बहुत खोटे हो गये हैं."
इस पद में कबीर साहेब ने बलि प्रथा की धज्जियां उड़ा दी है. गोवध को लेकर मुसलमानों की आलोचना करनेवाले वे हिन्दू जो देवी देवताओं के नाम पर निरीह पशुओं की हत्या करते हैं, वे कौन से दूध के धुले हुए हैं. आज इस इक्कीसवीं सदी में भी बलि प्रथा बदस्तूर जारी है. दुर्गाष्टमी को निरीह पशुओं (बकरी के बच्चे खस्सी) की बलि देकर उसके मांस का भक्षण स्वयं करते हैं और इल्जाम मॉं दुर्गा के सर पर मढ़ते हैं. ऐसी अंधभक्ति किस काम की, जो जीव हिंसा जैसा घृणित से घृणित कर्म करने को उत्प्रेरित करे. इन्हीं सब कुप्रथाओं का विरोध महात्मा बुद्ध ने भी किया था और संतकबीर ने भी किया, परंतु ब्राह्मण वादी व्यवस्था ने इन दोनों धर्म सुधारकों की एक न सुनी. किसी भी अवतार का विरोध करने वाले बुद्ध और कबीर को भी विष्णु का अवतार घोषित कर दिया.
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अंध भक्तों की अंध भक्ति को कबीर ने उस अंधी गाय के वात्सल्य की तरह माना है जिसका बछड़ा मर जाता है और उसका दूध दुहने के लिए मालिक नकली बछड़े का निर्माण करता है -
"कबीरा कहे है जग अंधा, अंधी जैसी गाय।
बछड़ा था सो मर गया झूठी चाम भराय।।"
अर्थात : एक अंधी गाय थी. उसने एक बछड़े को जन्म दिया था। अक्सर गाय दूध तभी देती है, जब उसका बछड़ा उसके सामने हो. एक दिन उस अंधी गाय का बछड़ा मर गया. गाय का मालिक बहुत चालाक था. उसने उस बछड़े की खाल में भूंसा भर कर नकली बछड़ा बना दिया. उस गाय ने तो बछड़े को देखी न थी, इसलिए उसने उस नकली बछड़े को ही अपनी संतान समझ लिया. और उसे प्रेमभाव से चाटने लगा. उसका मालिक मजे से दूध दुह कर कमाई करने लगा. कबीर दास जी के कहने का तात्पर्य यह है कि संसार भी उस अंधी गाय की तरह ही है. संसार के लोगों ने तो किसी देवता या भगवान को देखा नहीं है इसलिए चालाक पंडा और पुजारी लोग सदियों से भगवान (देवी देवताओं) की प्रतिमाएँ बनाकर इस अंधे समाज को ठगते आ रहे हैं. इस दोहा के माध्यम से संत कबीर ने मूर्ति पूजा पर तीखा प्रहार किया है. ******
अब आईए संत कबीर साहेब के मोह माया को भी जान ले. इनकी दृष्टि में जहाँ मोह संसार का बंधन है, वहीं माया महा ठगिनी है. इन दोनों (माया और मोह) का त्याग किये बिना मनुष्य इस संसार से मोक्ष यानि मुक्ति नहीं पा सकता. कबीर साहेब ने मन को चंचल और चोर बताया है. मन में उठने वाली सभी तरह की लालसाएं अथवा कामनाएं मनुष्य को ठगने वाली है. कबीर साहेब की दृष्टि में संसार की सभी तरह भोग विलास रूपी इच्छाएं माया का ही रूप है. यही माया हमें अवांछित मार्ग की; ओर अग्रसर करता है. इस माया में तीनों तरह की कामना रूपी गुणों - सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण का समावेश है. इस महा ठगिनी माया का प्रत्यक्ष रूप है-स्त्री. इसलिए ही कबीर कहते हैं कि -
"माया महा ठगिनी हम जानी।
त्रिगुण फांस लिए कर!डोलै,
बोलै मधुरी वाणी।
केसव के कमला हुई बैठी,
सिव के भवन भवानी।
पंडा के मूरत होइ बैठी,
तीरथ हू में पानी।
जोगी के जोगन हुई बैठी,
काहू के कौड़ी कानी।
भक्तन के भक्तिन होइ बैठी,
ब्रह्मा के ब्रह्माणी।
कहे कबीर सुनो भाई साधो,
यह सब अकथ कहानी।"
अपने इस पद में कबीर ने यह बताने का प्रयास किया है कि माया (मोह) एक ठगिनी है, जो जीव (मनुष्य) को ब्रह्मोन्मुखी नहीं होने देती. कबीर साहेब ने माया को त्रिसूर के समान बताया है. जो रज, तम और सत से बनी है. इस माया से छुटकारा पाने के लिए ब्रह्म रूपी जल से सिंचना होता है. कबीर ने माया को लैकर कई अन्य महत्वपूर्ण बातें कही है. जैसे - माया बेल लता की तरह है, जिसकी जाल बड़ी विचित्र होती है. जिसमें फंसकर प्राणी छटपटाने लगता है. माया ऐसी पापिन है कि प्राणियों को परमात्मा से दूर कर देती है. कबीर की दृष्टि में माया वह अविधा है जो जीव को ब्रह्म से एकाकार नहीं होने देती. यहाँ कबीर ने माया का सामान्य अर्थ धन दौलत की लिप्सा तथा तथा नारी के प्रति सम्मोहन तथा इन्द्रजाल को माना है.
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क्रमश :.............!
(अगले अंक में पढ़ें "कबीर के राम का यथार्थ."
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