(सामाजिक कुरीतियों एवं सामंतवादी व्यवस्था के प्रति साध्वी मीरा का विद्रोह.)


 -रामबाबू नीरव 

राणा कुम्भा की मृत्यु के बाद पूरे मेवाड़ में मातम छा गया. राणा कुम्भा सबके प्रिय थे. उनके पिता महाराज राणा सांगा के साथ साथ प्रजा भी उन्हें जी जान से चाहती थी. उन दिनों पूरे भारतवर्ष के हिन्दू धर्मावलंबियों में "सती प्रथा" जैसी अमानवीय प्रथा का प्रचलन था. इस क्रूर प्रथा के अनुसार किसी मृतक पुरुष के साथ उसकी पत्नी को जबरन चिता में जिन्दा जला दिया जाता था. इस अमानवीय प्रथा को धर्माधिकारियों द्वारा पौराणिक कथाओं (मूलरूप से भगवान भोलेशंकर की पत्नी सती द्वारा अपने पिता के यज्ञ कुंड में कूदकर आत्मदाह कर लेने की कहानी) के साथ जोड़कर समाज को इतना दिग्भ्रमित और भयभीत कर दिया गया कि इस क्रूर प्रथा को मानना लोगों की विवशता बन गयी. यह प्रथा मध्यकालीन भारत की सामंती सोच की मिसाल थी, जिस सोच के मुताबिक समाज में स्त्रियों की स्थिति पशुओं से भी बदतर बना दी गयी थी. जब राणा कुम्भा की मृत्यु हो गई तब उनके मृत शरीर के साथ उनकी पत्नी मीराबाई को सती धर्म का पालन करने हेतु जिंदा जलाने के लिए बाध्य किया जाने लगा. परंतु साध्वी मीराबाई ने समाज की इस अमानवीय प्रथा को मानने से इंकार कर दिया. मीराबाई के इस विद्रोही तेवर को देखकर उनकी सासु मां महारानी रत्नकुंवरी ने विकराल रूप धारण कर लिया, परंतु मीराबाई टस से मस न हुई. उधर उनके इंकार से पूरे राजपूताना में हड़कंप मच गया. जहां राजपूताना के राजघरानों एवं उच्च वर्ण के लोगों ने मीराबाई की इस हरकत की तीव्र निन्दा आरंभ कर दी, वहीं दलित समुदाय के लोगों ने हर्ष प्रकट किया. कुंवर विक्रम सिंह तो आग बबूला  हो गया. उसने अब मीरा को मेवाड़ राजघराने का कलंक मान लिया और उसे मारने के तरह तरह के हथकंडे अपनाने लगा. कभी उस दुष्ट ने मीरा के लिए ज़हर भेजा, तो कभी विषधर सांप. परंतु मीराबाई को इस सब की कोई परवाह न थी. क्योंकि वह जानती थी कि उसके रक्षक उसके स्वामी श्रीकृष्ण हैं, इसलिए यह जग उसका चाहे जितना भी बैरी हो जाए, उसका बाल भी बांका नहीं कर सकता. वह सारी दुश्चिंताओं से मुक्त होकर  अपने श्रीकृष्ण की भक्ति में लीन हो गयी. अपने आराध्य श्रीकृष्ण के समक्ष पग में घूंघरू बांधकर नाचती हुई वह बिंदास गाया करती -

"पग घूंघरू बांध मीरा नाची  रे.

पग घूंघरू बांध मीरा नाची रे.

मैं तो अपने नारायण की हो गयी, आप ही दासी रे.

पग घूंघरू बांध मीरा नाची रे.

लोग कहे मीरा हुई रे बाबरी,

सासु कहे कुल नासी रे.

पग घूंघरू बांध मीरा नाची रे.

मीरा के प्रभु गिरधर नागर,

सहज मिले अविनासी रे.

पग घूंघरू बांध मीरा नाची रे."

मीरा बाई के इस रवैए से क्षुब्ध होकर राणा कुम्भा के सभी क्रूर भाइयों ने उन्हें एक तरह से राजमहल में कैद कर दिया. फिर भी सारी बेड़ियों को तोड़ कर वह मंदिर में पहुंच जाती और अपने प्रभु की भक्ति में लीन होकर तानपुरा बजाती हुई, सस्वर अपने हृदय की व्यथा व्यक्त करने लग जाती -

"हे री, मैं तो प्रेम दीवानी,

मेरो दर्द न जाने कोय .

घायल की गति घायल जाने,

जो कोई घायल होय.

जौहरि की गति जौहरी जाने,

जो कोई जौहरी होय.

सूली ऊपर सेज हमारी,

सोवन किस विधि होय.

गगन मंडल पर सेज पिया की,

किस विधि मिलना होय.

दरद की मारी वन वन डोलूं,

वैद  मिल्या नहीं कोय.

मीरा के प्रभु पीर मिटेगी,

जब वैद सांवरिया होय."

मीरा की पीड़ा को दो ही सज्जन समझ रहे थे, एक तो थे उसके अंतर्यामी प्रभु श्रीकृष्ण और दूसरे थे उसके पूज्य श्वसुर जी राणा संग्राम सिंह (राणा सांगा). राणा सांगा अपने दुष्ट पुत्रों, पुत्री ऊदा कुंवरी तथा पत्नी  महारानी रत्नकुंवरी द्वारा मीरा को दी जाने वाली यातनाओं से रक्षा करती रहे. परंतु दुर्भाग्य से नियति द्वारा उसका वह अंतिम संबल भी छीन लिया गया. उनके पति राणा कुम्भा की मृत्यु के पांच वर्षों पश्चात ही मुगल बादशाह बाबर की सेना के साथ युद्ध करते हुए महाराज राणा सांगा परलोक सिधार गये. उनके स्वर्ग सिधारते ही मेवाड़ के राजघराने में वर्चस्व को लेकर संग्राम छिड़ गया. नियमत: राणा सांगा और राणा कुम्भा की मृत्यु के पश्चात राजगद्दी के उत्तराधिकारी कुंवर रत्नसिंह सिसौदिया थे, परंतु राणा सांगा के सबसे छोटे पुत्र कुंवर विक्रमजीत सिंह सिसौदिया ने राजगद्दी पर अपना दावा ठोक दिया. विक्रम सिंह दबंग और क्रूर था उसने जबरदस्ती राजगद्दी हथिया लिया. विक्रम सिंह का मेवाड़ का राजा बनना मीराबाई के लिए सबसे ख़तरनाक साबित हुआ. राजा बनते ही विक्रम सिंह मीरा बाई पर मनमाना जुल्म ढाने लगा. 

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    विक्रम सिंह को यह आशंका हो गयी कि भविष्य में मीराबाई उसके राज्य पर अपना दावा न ठोक दे, इसलिए वह दुष्ट उसे अपने रास्ते से हटाने के लिए क्रूर से क्रूरतम हथकंडे अपनाने लगा. जब उसके सारे हथकंडे असफल होते चले गये तब उसने एक निस्तब्ध रात्रि को उसे चितौड़गढ़ के महल से नीचे फेंकवा दिया. फिर भी मीराबाई का बाल भी बांका नहीं हुआ. मीरा किसी चमत्कार की तरह पुनः राजमहल में वापस आ गयी. इस चमत्कार को देखकर रानी रत्न कुंवरी तथा उनकी पुत्री राजकुमारी उदा कुंवरी का मन मिजाज ही बदल गया.  अब वे दोनों समझ गयी कि मीरा के प्रभु श्रीकृष्ण अलौकिक हैं, वे दोनों भी अब श्रीकृष्ण की आराधिका बन गई. विक्रम सिंह ने मीराबाई पर निगरानी रखने के लिए दो विश्वासपात्र दासियां नियुक्त कर रखा था. चम्पा और चमेली, परंतु मीराबाई के साथ घटित होने वाली चमत्कारी घटनाओं को देखकर वे दोनों भी भगवान श्रीकृष्ण के साथ साथ मीरा की आराधिका बन गयी. पग पग पर मीरा की जीत होती जा रही थी. यह सब देखकर विक्रम सिंह पर पागलपन का दौड़ा पड़ने लगा. 

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क्रमशः.........!

(अगले अंक में  पढ़ें :- "मीरा के गुरु संत रविदास की दास्तान.")

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