राज पैलेस....! इस शहर का सबसे आलीशान बंगला. यह बंगला सेठ धनराज जी का है. सेठ धनराज की उम्र लगभग 75 वर्ष की हो चुकी है. इस उम्र में भी वे अपनी कंपनी "वसुंधरा फूड प्रोडक्ट्स प्रा० लि०" के मैनेजिंग डायरेक्टर हैं. उनकी कंपनी का मुख्यालय दिल्ली में है. तथा क्षेत्रीय कार्यालय पूर्वोत्तर भारत के हर बड़े शहरों तक फैला हुआ है. बिहार की राजधानी पटना में भी इस कंपनी का क्षेत्रीय कार्यालय है. इस कंपनी की बड़ी बड़ी फैक्ट्रियां नोएडा, गाजियाबाद, फरिदाबाद आदि शहरों में है. इन फैक्ट्रियों में हजारों की संख्या में मजदूर तथा अन्य कर्मचारी कार्यरत हैं. मैंने इस कहानी की शुरुआत जिस शहर से की है वह उत्तरी बिहार का एक विकसित शहर है और इस शहर में ही सेठ धनराज जी का जन्म हुआ था. उनका बचपन और किशोरावस्था फाकाकशी में गुजरा. अपनी गरीबी से ऊब कर रोजगार की तलाश में वे किशोरावस्था में ही दिल्ली आ गये थे. काफी भटकने के बाद उन्हें पहाड़गंज की एक छोटी सी बेकरी में नौकरी मिल गयी. बेकरी के मालिक एक नेकदिल इंसान थे. उनके ही स्वभाव की उनकी पत्नी भी थी. उन दोनों की एक ही सन्तान थी, जिसका नाम था बसुंधरा. पति-पत्नी दोनों अस्वस्थ रहा करते थे. धनराज की ईमानदारी और लगन को देखते हुए बेकरी मालिक ने अपनी बेकरी की पूरी जिम्मेदारी उसे सौंप दी. कुछ दिनों बाद अपने दिनों-दिन गिरते जा रहे स्वास्थ्य को देखते हुए  बेकरी के मालिक तथा उनकी धर्मपत्नी ने अपनी पुत्री का हाथ धनराज के हाथों में सौंप दिया. धनराज  और वसुंधरा के विवाह के कुछ ही दिनों बाद बसुंधरा के माता-पिता एकाएकी इस दुनिया से कूच कर गये. अब धनराज ही उस बेकरी का मालिक था.  उसने अपने परिश्रम से उस बेकरी को चमका दिया. धनराज भी अपने माता-पिता का एकलौता पुत्र था. दूर दूर तक उसका कोई नजदिकी रिश्तेदार भी न था. विवाह के बाद वह अपनी धर्मपत्नी के साथ घर आया. और अपने माता-पिता को दिल्ली ले जाने की जिद करने लगा, परंतु उन दोनों ने अपने बेटे के ससुराल में रहना उचित नहीं समझा और दिल्ली जाने से इंकार कर दिया. उसके पड़ोस में ही एक विधवा अपने छ: साल के पुत्र के साथ रहती थी. धनराज ने अपने माता-पिता की सेवा के लिए उस विधवा को ही नियुक्त कर दिया. उस विधवा के पुत्र का नाम था रग्घू. धनराज अपने माता-पिता की ओर से निश्चिंत होकर अपनी पत्नी बसुंधरा के साथ वापस दिल्ली चला गया . कभी कभी बसुंधरा अपने सास-ससुर की सेवा के लिए यहां आ जाया करती. तब वे दोनों खुश हो जाते. वसुंधरा भी अपने सास-ससुर को दिल्ली ले जाने का काफी प्रयास करती रही परंतु वे दोनों पुराने ख्यालात के थे इसलिए जाने से मना कर दिया.

लगभग दो वर्षों बाद ही धनराज के माता-पिता का स्वर्गवास हो गया. धनराज अपने माता-पिता के गुजर जाने से काफी मर्माहत हो गये. अपने कारोबार को छोड़ कर लगभग 15 दिनों तक वे बसुंधरा  के साथ पुश्तैनी मकान में शोक मनाते रहे. कुछ माह बाद बसुंधरा ने एक पुत्र को जन्म दिया. दोनों पति-पत्नी ने अपने पुत्र का नाम रखा किशन राज. किशन राज के जन्म लेते ही धनराज का सितारा बुलंदी पर पहुंच गया, छोटे से बेकरी से अब धनराज एक फैक्ट्री के मालिक बन गये. उनकी बेकरी का नाम हो गया ", वसुंधरा फूड प्रोडक्ट्स". और वे धनराज से सेठ धनराज बन गये. धीरे धीरे इस फैक्ट्री ने एक प्रा० लिए,० कम्पनी का रूप ले लिया. यानी अब यह कंपनी "बसुंधरा फूड प्रोडक्ट्स प्रा० लि०" के नाम से पूरे भारत में विख्यात हो गयी. जहां पहले छोटी सी बेकरी थी वहां एक शानदार बिल्डिंग खड़ी हो गयी और यही बिल्डिंग बसुंधरा फूड प्रोडक्ट्स प्रा० लि० का हेड ऑफिस बन गया.  फैक्ट्री नोएडा में शिफ्ट कर दिया गया. चंद वर्षों में ही सेठ धनराज के दिल्ली और‌ नोऐडा में कई कोठियां तथा उनके अपने पुश्तैनी शहर में अनेकों मकान हो गये. सेठ धनराज तथा उनकी पत्नी बसुंधरा राज को इतनी फुर्सत कहां थी कि वे दोनों अपने पुश्तैनी शहर में आकर रहते.! यहां की हवेली "राज पैलेस" तथा अन्य अचल सम्पत्ति की देखभाल रग्घू की मां करने लगी. राज पैलेस में कई नौकर नौकरानियां थी, उन सब पर हुकूमत रग्घू की मां ही करती थी.  रग्घू की मां खुद जितनी ईमानदार थी, वैसा ही ईमानदार रग्घू भी था.  वर्ष में एक या दो बार सेठ धनराज अपनी पत्नी के साथ यहां आकर भाड़े के मकानों का हिसाब किताब कर लिया करते थे. 

धनराज उदार तथा दानी प्रवृत्ति के थे. उन्होंने अपने शहर तथा इसके आसपास के इलाके में दातव्य औषधालय, विद्यालय तथा धर्मशाला के निर्माण के साथ साथ यहां के सैकड़ों बेरोजगार युवाओं को अपनी कम्पनी में नौकरी देकर एक कीर्तिमान स्थापित किया था . परिणामस्वरूप यहां के लोग उन्हें देवता की तरह पूजने लगे. रग्घू तथा उसकी मां के लिए तो वे भगवान थे ही. उनका पुत्र किशन राज रग्घू से सात वर्ष छोटा था. किशन राज जब भी यहां आता रग्घू उसे अपनी गोद में खेलाया करता. सेठ धनराज चाहते थे कि रग्घू पढ़ लिख जाए तो उसे भी अपनी कम्पनी में कोई अच्छा पोस्ट दे दें. परंतु बहुत कोशिश के बाद भी रग्घू नौवीं से आगे नहीं पढ़ पाया. इसी बीच रग्घू की मां ने बिना सेठ धनराज से पूछे ही उसकी शादी भी कर दी. इस बात को लेकर सेठ धनराज उससे नाराज़ हो गये, मगर उनकी नाराज़गी अधिक दिनों तक नहीं रहीं. 

      धीरे धीरे समय बीतता चला गया. सेठ धनराज ने अपने पुत्र किशन राज को उच्च शिक्षा हेतु कैलिफोर्निया भेज दिया. इधर रग्घू की मां स्वर्ग सिधार गयी. उसके लौकिक कर्म में धनराज अपनी पत्नी बसुंधरा के साथ यहां आए थे और पूरा क्रियाकर्म सम्पन्न कराकर ही वापस गये थे. कुछ दिनों बाद रग्घू एक पुत्री का पिता बन गया. उसने अपनी पुत्री का नाम रखा सुनयना. अपनी मां की तरह अब रग्घू राज खानदान की पूरी निष्ठा और ईमानदारी से सेवा करने लगा. जब उसकी पुत्री सुनयना दस वर्ष की हुई, तभी उसकी मां का भी देहांत हो गया. अब रग्घू पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा. उसे अब दो दो जिम्मेदारियां निभानी पड़ रही थी. एक थी अपनी बेटी सुनयना की परवरिश और दूसरी सेठ धनराज की सम्पत्ति की देखभाल के साथ साथ सुरक्षा.

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कैलिफोर्निया से एमबीए की डिग्री लेकर किशन राज अपने देश आपस आ गया. दस वर्षों तक अमेरिका में रहने के कारण उसकी सोच भी अमेरिकन हो चुकी थी. सेठ धनराज ने इस पर ध्यान नहीं दिया कि उनका पुत्र अमेरिका जाकर पाश्चात्य संस्कृति के रंग में रंग चुका है. उन्हें तो इस बात की खुशी ‌थी कि अमेरिका से आने के बाद उनके पुत्र ने कम्पनी की सारी जानकारी उठा ली और अल्प समय में ही उसने बसुंधरा फूड प्रोडक्ट्स प्रा० लि० को आधुनिक बना कर इसे पश्चिमी देशों तक पहुंचा दिया. यानी बसुंधरा फूड प्रोडक्ट्स प्रा० लि० के उत्पादों ‌की मांग एशियन तथा यूरोपियन देशों में भी होने लगी. वैसे तो किशन राज के लिए  बड़े बड़े घरानों से रिश्ते आने‌ लगे थे, मगर सेठ धनराज ने किशन राज की मर्जी को जाने बगैर उसकी शादी दिल्ली के एक उद्योगपति की पुत्री पूर्णिमा के साथ कर दी. पूर्णिमा भले ही उच्च घराने से आयी उच्च शिक्षा प्राप्त युवती थी, मगर उसके आचार, विचार और संस्कार पूर्णरूपेण भारतीय थे. उसकी आस्था भारतीय संस्कृति और भारतीय परंपराओं में थी. इसलिए  ही वह सेठ धनराज की पहली  पसंद बन गयी. परंतु आधुनिकता के रंग में रंगे हुए किशन राज को पूर्णिमा पसंद‌ न थी, अपने पिता के विरुद्ध आवाज उठाने की हिम्मत भी उसमें नहीं थी, इसलिए उसने  चुपचाप इस रिश्ता को स्वीकार कर लिया.

   राज परिवार दिल्ली के पंजाबी बाग में स्थित "बसुंधरा पैलेस" में रहा करता था. गर्मियों में बंसुधरा जी अपने पुश्तैनी शहर में आ जाया करती. जब वे राज पैलेस में आती तब इस कोठी की रौनक बढ़ जाता करती. रग्घू, सुनयना तथा कोठी के अन्य नौकर नौकरानियों को तो ऐसा लगता जैसे स्वर्ग से उतरकर कोई देवी आ गयी हों. वे जब भी यहां आती तब इस इलाके के निर्धन लोगों की बेटियों के हाथ पीले हो जाया करते. कई बेसहारा लोगों को सहारा मिल जाता और बेरोजगार युवाओं को नौकरी मिल जाती. इस शहर के‌ लोग उनकी सहृदयता और उदारता को देखकर उन्हें देवी का अवतार मानने लगे. मगर उस देवी के साथ एक दिन वह हो गया, जिसकी किसी ने सपने में भी कल्पना नहीं की थी. पटना से यहां आते समय नशे में धुत् एक ट्रक ड्राईवर ने उनकी इम्पाला गाड़ी को कसकर ठोकर मारी दी.  घटना स्थल पर ही उनके साथ साथ गाड़ी के ड्राइवर ने भी दम तोड़ दिया. ईश्वर की कृपा ऐसी रही कि सेठ धनराज उस दिन अपनी पत्नी के साथ यहां नहीं आए थे.

जब यह मनहूस खबर राज पैलेस के साथ साथ दिल्ली के बसुंधरा पैलेस में पहुंचीं तब दोनों जगह कुहराम मच गया. राज पैलेस में रग्घू, सुनयना तथा अन्य सभी नौकर नौकरानियों के साथ यह पूरा शहर छाती पीट पीट कर रोने लगा. उधर दिल्ली में सेठ धनराज, किशन राज तथा पूर्णिमा राज को ऐसा लगा जैसे उनकी दुनिया ही उजड़ गयी हो.  वे तीनों हेलीकॉप्टर से यहां आये. धनराज जी का तो रोते रोते बुरा हाल हो चुका था. बड़ी मुश्किल से उनकी बहू पूर्णिमा ने उन्हें संभाला. अपनी मां के वियोग में किशन राज भी विकल हो गया.  खैर होनी को कौन टाल सकता था ? यह पूरा शहर बसुंधरा जी के शोक में तब तक डूबा रहा जब तक कि क्रिया-कर्म समाप्त न हो गया.  किशन राज तो दिल्ली लौट गया, मगर सेठ धनराज अपनी बहू पूर्णिमा के  साथ कुछ दिनों के लिए यहीं रूक गये. 

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     विवाह के एक वर्ष बाद पूर्णिमा राज ने एक पुत्र को जन्म दिया. पौत्र पाकर सेठ धनराज जी  की खुशी का ठिकाना न रहा., उन्होंने अपने दिल के टुकड़े का नाम रखा अभय राज. उस समय तक रग्घू की बेटी सुनयना ग्यारह वर्ष की हो चुकी थी. धनराज जी रग्घू से विनती करके सुनयना को दिल्ली ले आये. यहां  उन्होंने सुनयना का एक अच्छे स्कूल में एडमिशन करवा दिया. सुनयना पढ़ाई के साथ-साथ अभय तथा सेठ धनराज की देखभाल भी करने लगी. सेठजी ने भाग-दौड़ की जिन्दगी से मुक्ति पाने का विचार किया, इसलिए कम्पनी की पूरी जिम्मेदारी किशन राज को सौंप कर अपना समय बसुंधरा पैलेस में ही अभय के साथ बिताने लगे. अब किशन राज ‌की व्यस्तता काफी बढ़ गयी. बह एक उद्योगपति के साथ साथ पाश्चात्य संस्कृति में रंगा हुआ आधुनिक ख्यालों का युवक भी था. दिल्ली की हाई सोसायटी को मेंटेन करते हुए वह शराब और मुक्त यौनाचार में डूबता चला गया. वह चाहता था कि उसकी पत्नी पूर्णिमा भी इस हाई सोसायटी को मेंटेन करें, परंतु पूर्णिमा राज को अश्लील पाश्चात्य सभ्यता रत्ती भर भी पसंद न थी. इस बात को लेकर पति-पत्नी के बीच तनाव की स्थिति पैदा होती चली गयी. किशन राज ने अपनी पत्नी से दूरी बना ली. अपने पति के इस दुर्व्यवहार से वह  क्षुब्ध हो उठी. मन ही मन वह बसुंधरा पैलेस में घुटन महसूस करने लगी. अपनी पत्नी के प्रति इस तरह का दुर्व्यवहार सेठ धनराज जी से छुपा रह सका. नौकर नौकरानियां भी किशन राज के इस रवैए से व्यथित थे. इशारे  इशारे में धनराज जी ने अपने बेटे को समझाने की बहुत कोशिशें की, मगर उसके ऊपर तो‌ आधुनिकता का भूत सवार था, वह उनकी क्या सुनता.? किशन राज अति महत्वाकांक्षी भी था. उसकी आंतरिक इच्छा थी कि किसी तरह से वह पार्लियामेंट में पहुंच जाए और केन्द्रीय मंत्रिमंडल में मंत्री बन जाये. इसके लिए वह राजनीति में दिलचस्पी लेने लगा. वसुंधरा पैलेस में अब आए दिन राजनेताओं का जमघट लगने लगा. वहां कॉकटेल पार्टियों का आयोजन होने लगा. किशन राज के पास दौलत की कमी तो थी नहीं, वह पानी की तरह दौलत बहाने लगा. सेठ धनराज तथा पूर्णिमा को यह सब बिल्कुल पसंद न था. उन्होंने मौन भाव से किशन राज पर अपनी नाराज़गी प्रकट कर दी, मगर वह सुधरने की वजाए और भी उदंड होता चला गया. उसकी इस उदंडता से क्षुब्ध होकर पूर्णिमा अपने पुत्र तथा सुनयना को साथ लेकर पुश्तैनी शहर में आ गयी. उन लोगों को अचानक राज पैलेस में देखकर रग्घू की खुशी का ठिकाना न रहा.

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क्रमशः............!

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