समीक्षा


"समीक्ष्य कृति : अंतर्नाद.(ग़ज़ल संग्रह) ग़ज़लकार : शिव शंकर सिंह. प्रकाशक : अभिधा प्रकाशन, मुजफ्फरपुर -दिल्ली

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प्रस्तुत ग़ज़ल संग्रह वरिष्ठ साहित्य मनीषी श्रद्धेय शिव शंकर सिंह जी के ग़ज़लों तथा शेरों का अनुपम संग्रह है. इस संकलन में संकलित ग़ज़लों तथा शेरों में जिन्दगी का फलसफा है, और है कशमकश भरी जिन्दगी की जद्दोजहद. इनकी ग़ज़लों तथा शेरों पर अपना मंतव्य व्यक्त करने से पूर्व मैं ग़ज़ल की व्युत्पत्ति तथा उसके स्वरूप पर चर्चा करना आवश्यक समझता हूं. ताकि पाठक ग़ज़लों के तबके और अब के मिजाज को समझ सकें. बिल्कुल सहज रूप में यदि कहना हो तो मैं यहीं कहूंगा कि ग़ज़ल हिन्दी अथवा उर्दू काव्य धारा में प्रवाहित होने वाली एक ऐसी भावाभिव्यक्ति है जिसमें स्त्री (नायिका) के नख से लेकर सिख तक के सौंदर्य का चित्रण किया जाता है. ग़ज़ल शब्द की व्युत्पत्ति को लेकर हिन्दी एवं उर्दू के अधिकांश विद्वानों का मत है कि ग़ज़ल असल में अरबी भाषा का एक स्त्रीलिंग शब्द है. जिसका भावार्थ है "प्रेमी और प्रेमिका के बीच का आपसी संवाद." वहीं अधिकांश विद्वान यह मानते हैं कि ग़ज़ल असल में "गजाला" शब्द का परिष्कृत रूप है. गजाला का अर्थ होता है मृग (हिरण). इस गजाला पर एक शेर है -

"तेरी मुहब्बत की फितरत लाल बदख्शां से कहूंगा,

जादू हैं तेरे नयन गजाला से कहूंगा." (अज्ञात)

इस शेर में नायिका की पाक मुहब्बत की तुलना लालरंग के पद्मराग तथा हिरण की आंखों से की गयी है. ग़ज़ल का दूसरा नाम "मृगनयनी" माना गया है. ग़ज़ल का मिजाज (स्वभाव) मूल रूप से समर्पणवादी होता है. प्रेमी-प्रेमिका जब एक दूसरे में खो जाते हैं तब उस मिजाज को ही शायरों ने ग़ज़ल का नाम दिया. ग़ज़ल का दूसरा मिजाज रोमांटिक होने के कारण यह बादशाहों के महफ़िल की रौनक बन गयी. लम्बी अवधि तक ग़ज़ल बादशाहों और राजा-महाराजाओं के मनोरंजन का साधन अथवा यूं कहें कि दासी बनी रही. शायरों ने इसे रोमांस की अनंत ऊंचाई पर पहुंचा दिया. ग़ज़ल शराब और शबाब बनकर महफिलों में छलकने लगी. 

"तू डालता जा साकी शराब मेरे प्यालों में,

वो फिर से आने लगी है मेरे ख्यालों में. (अज्ञात)

 लेकिन उन रंगीन मिजाज लोगों को पता ही न चला कि ग़ज़ल उनकी गुलामी से उबने लगी है. उसे लगा कि उसका दम घूट जाएगा. वह आजादी पाने के लिए छटपटाने लगी. आखिरकार उसने अपनी राह तलाश ली और अमीरों के महल से निकल कर पहले देवताओं की वंदनी बनी

फिर बन गयी आजादी के दीवानों के दिल‌की सदा - 

"हिंदियों में बू रहेगी जब तलक ईमान की.

तख्त-ए-लंदन तक चलेगी तेग हिन्दुस्तान की."। (बहादुर शाह ज़फ़र)

या, 

"सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है,

देखना है ज़ोर कितना बाजू-ए-कातिल में है." (बिस्मिल अज़ीमाबादी) उस दौड़ में आजादी की तमन्ना रखने वाले सरफरोसों की तरह कवि और शायर भी अपनी कलम की जोर पर आजादी पाने के ख्वाहिशमंद थे. लेहाज़ा हमें आजादी मिली, मगर न तो गरीबों को न्याय मिला और न ही आवाम को सकून. तब आवाम, खासकर गरीबों की दुर्दशा देखकर ग़ज़ल तड़प उठी और वह गरीबों की झोपड़ी की ओर चल पड़ी. फिर बन गयी वह गरीबों की आह, मजलूमों की पुकार और अबलाओं की चीत्कार. आजादी के बाद हिन्दी के कवियों ने उर्दू ग़ज़ल को एक नया आयाम दिया. निजाम की बेशर्मी और देश की हालात से आम आदमी को रू-ब-रू कराने की जिम्मेदारी आ गयी कवियों और गजलकारों पर. तब अदम गोंडवी क्या लिखते हैं, देखिए -

"तुम्हारी फाइलों में गांव का मौसम गुलाबी है,

मगर ये आंकड़े झूठे हैं 

ये दावे किताबी हैं."

लगभग उसी दौड़ में जब अदम गोंडवी और दुष्यन्त कुमार जैसे ग़ज़लकार अपनी ग़ज़लों के द्वारा गरीबों की आह और देश की हालत का जिक्र कर रहे थे, हमारे अज़ीम शायर शिवशंकर सिंह भी उसी तासीर की ग़ज़लें कुछ यूं लिखा रहे थे -

"शुष्क बंजर खेत में सपनों की फसल बोते रहे,

कुछ याद कर हंसते रहे कुछ याद कर रोते रहे."

और,

"जिन्दगी की भीड़ में हम तन्हा नजर आने लगे, 

और ख्वाबे जिन्दगी अकेले में हमें डराने लगे." (शिवशंकर सिंह)

शायर की नजर में यह दुनिया इतनी बदरंग हो चुकी है कि इंसानों की भीड़-भाड़ में भी खुद को तनहा महसूस कर रहे हैं शिवशंकर बाबू. इनकी नजरों में जिन्दगी ऐसा सपना बन चुकी है जिसे देखकर भय लगता है. लोग झूठी उम्मीद पर जी रहे हैं इस संसार में. इस जनम में जो आशा पूरी नहीं हुई, वह अगले जन्म में पूरी हो जाएगी, यह दिलासा भी किसी दिवा स्वप्न की तरह ही है.-

"मर कर हम जन्म लेंगे फिर इसी संसार में,

झूठी ही सही पर इससे बड़ी आशा नहीं होती."

शिवशंकर बाबू न तो आशावादी हैं और न ही निराशावादी बल्कि बुद्ध की तरह चैतन्य और यथार्थवादी हैं. ढोंग और पाखंड के विरोधी हैं. इंसानियत के पैरोकार हैं, अल्लाह और ईश्वर में भेद नहीं मानते तभी तो बेबाकी से वे कहते हैं -

"इंसानियत की राह का निशान हो जाना,

सत्य के राही का तय है कुर्बान हो जाना.

तुम खुदा थे याकि ईश्वर फिर भी ठीक था, 

ट्रैजिक (दुखद) है तेरा हिन्दू या मुसलमान हो जाना."

जो जितना ही संवेदनशील होगा उसके दिल में प्रेम अंकुरण भी उसी अनुपात में होगा. कवि या शायर होने पहले जरूरी है प्रेमी होना. प्रेमी सिर्फ अपनी प्रेमिका (मासूका) से ही प्रेम करने वाले को नहीं कहते, मॉं, पत्नी, भाई-बहन से प्रेम करने वाले या जनता जनार्दन से प्रेम करने वाले भी प्रेमी होते हैं. इस तरह का प्रेम सात्विक होता है. ऐसे ही संवेदनशील प्रेमी हैं शायर शिवशंकर बाबू. तभी तो वे कहते हैं -

"किसी को यकीं न हो शायद फिर भी सबों को कहता हूं,

सबों से प्यार करता हूं मैं, हां सबों से प्यार करता हूं." फिर अपनी मॉं के प्रति प्यार की पवित्रता को वे किस रूप में देखते हैं, जरा इस शेर को देखिए-

"इससे पहले की दुनिया से हो जाऊं रुखसत, 

अरी ओ मॉं ! तुम्हारे दामन में नींद भर सोना चाहता." 

प्यार एक एहसास है, एक ऐसा एहसास जिसका न तो कोई आकर होता है और न ही रंग. ठीक वैसे ही -

"जैसे हंसने और रोने की भाषा नहीं होती,

बस वैसे ही प्यार की परिभाषा नहीं होती."

प्रेमिका के वियोग में तड़पने वाले बहुत सारे प्रेमी मिल जाएंगे मगर अपनी अर्द्धांगिनी के विछोह में छुप छुप कर ऑंसू बहाने वाले पति बहुत कम देखने को मिलते हैं. अपनी धर्मपत्नी से विछोह का दर्द या यूं कहें अपने दिल का वह दर्द किन लफ़्ज़ों में बयां करते हैं शिवशंकर बाबू, उस दर्द को जरा आप भी महसूस कीजिए -

"वो दर्द उठा कि रात भर न सोये हैं,

अश्रु बूंदों को अपने गीतों में पिरोये‌ हैं.

रात भर छिटकती रही रूह में रोशनी,

उस रोशनी में जिन्दगी को कई तरह से रोये हैं." 

इनकी ग़ज़लों के हर एक शेर में कशमकश भरी जिन्दगी का एहसास है. आम आदमी का दर्द देश के हालात पर छुपा हुआ तंज है.-

"तन नंगा ही सही सर पे तिरंगा तो है,

हम प्यासे ही सही देश में गंगा तो है."

ग़ज़लों के अतिरिक्त शिवशंकर बाबू ने असंख्य शेर भी लिखे हैं. इनके शेरों तासीर भी वही है जो ग़ज़लों ‌की है. -

"झूठ और सिर्फ झूठ का पुलिंदा थी जिंदगी,

और तमाम उम्र मैं उसमें 

सत्य ढ़ूंढ़ता रहा."

"आदमी समझकर जिसे मैंने प्यार किया,

मेरी बदनसीबी देखिए कि वह भी खुदा निकला."

शिवशंकर बाबू साहित्य के हर फन में माहिर हैं. कविता, ग़ज़ल, शेर, मुक्तक के साथ साथ लघुकथाएं और कहानियां भी लिखते रहें हैं. परंतु इनके शेरों-शायरी के तेवर को देखते हुए मैं इन्हें मूल रूप से ग़ज़लकार ही मानता हूं. इनसे हिन्दी ग़ज़ल साहित्य को अभी भी बड़ी बड़ी अपेक्षाएं हैं.

- रामबाबू नीरव

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