अपने पुत्र अभय राज के ग्यारहवें जन्मदिन पर किशन राज ने पंजाबी बाग स्थित बसुंधरा पैलेस में एक शानदार पार्टी का आयोजन करवाया. इस पार्टी में नृत्य, गीत और संगीत का भी कार्यक्रम रखा गया था साथ पार्टी में किशन राज ने सत्ताधारी दल के दिग्गज नेताओं तथा मंत्रियों से लेकर विरोधी दलों के नेताओं को आमंत्रित किया था. इस बहाने किशन राज राजनीति में अपनी पैठ बनाने की योजना को मूर्त रूप दे चुका था. चूंकि बसुंधरा पैलेस में आयोजित होनेवाला यह समारोह सेठ धनराज के पौत्र के जन्मदिन से जुड़ा था, इसलिए उन्होंने इस पर कोई आपत्ती नहीं की. उनके साथ साथ उनकी बहू पूर्णिमा राज भी बढ़-चढ़कर इस भव्य समारोह में रूचि लेने लगी. समारोह हर्षोल्लास के साथ सम्पन्न हो गया. इस समारोह के बाद से किशन राज की दुनिया ही बदल गयी. अब वह सत्ताधारी पार्टी का विख्यात नेता बन चुका था. पार्टी के हाईकमान ने उसकी सक्रियता तथा पार्टी के प्रति वफादारी को देखते हुए केन्द्रीय कमेटी का महत्वपूर्ण पद दे दिया. अब किशन राज अपनी कम्पनी की ओर से लापरवाह होता चला गया. उसकी इस लापरवाही को देखकर सेठ धनराज की दुश्चिंता बढ़ गयी उन्होंने मन ही मन एक ठोस निर्णय लेकर शीघ्र कंपनी के बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स की मीटिंग बुलवाई और उसमें अपने बेटे  किशन राज को मैनेजिंग डायरेक्टर के पोस्ट से अपदस्थ कराकर स्वयं मैनेजिंग डायरेक्टर बन गये. इस पर किशन राज ने किसी भी तरह की आपत्ति नहीं की, क्योंकि वह स्वयं इस जिम्मेदारी से मुक्त होना चाहता था. चूंकि किशन राज कंपनी में फोर्टी पर्सेंट का मालिक था इसलिए उसके पर्सनल एकाउंट में प्रत्येक महीने मुनाफा की रकम पहुंच जाया करती थी. 

   किशन राज अपने पुस्तैनी शहर राजनगर से ही एमपी बनकर संसद में पहुंचने की तैयारी करने लगा. क्योंकि वह जानता था कि इस शहर तथा आसपास के इलाके में उसके पिता सेठ धनराज तथा माता बंसुधरा राज को लोग देवता और देवी की तरह पूजते हैं, इसलिए उसकी जीत सुनिश्चित है. पार्टी के हाईकमान को भी लगा कि किशन राज की जीत सुनिश्चित है, इसलिए उसे बिना किसी परेशानी के टिकट मिल गया. चुनाव के दौरान भी उसे अधिक परेशानी नहीं हुई, जिन लोगों की सेठ धनराज तथा उनकी पत्नी ने जिन्दगी संवारी थी वे लोग ही किशन राज को जीताने के लिए मरने मारने को तैयार हो गये. परिणामस्वरूप किशन राज अपार बहुत से विजयी हुआ. उसकी जीत के पीछे सेठ धनराज और उनकी धर्मपत्नी की यहां के

 लोगों के प्रति अनुराग और सेवाभाव का बहुत बड़ा योगदान था. एमपी बन जाने के बाद तो किशन राज अपनी पत्नी पूर्णिमा राज तथा पुत्र अभय राज को  एकदम से भूल ही गया. उसकी दुनिया ही बदल चुकी थी. हद तो तब हो गयी जब उसने बसुंधरा पैलेस को भी भूला दिया. दिल्ली के लाजपत नगर में उसकी एक और कोठी थी, उसने उसने अपना बसेरा वहीं बना लिया. संसद भवन मार्ग में उसकी एक और कोठी थी, इस कोठी को उसने अपना ऑफिस बनाया. किशन राज के इस रवैए से धनराज जी के दिल को भी काफी सदमा पहुंचा. अब उन्हें अपने पौत्र की चिंता सताने लगी. वे स्वयं अपने कारोबार में व्यस्त रहा करते थे, किशन राज को अपने परिवार से कोई मतलब ही न था और अभय की के साथ साथ पूर्णिमा भी अपने पति की उपेक्षा का दंश झेल रही थी. एक सुनयना थी, जिसे सेठ धनराज के साथ साथ अभय का भी ख्याल रखना पड़ता था, मगर वह भी अकेली क्या क्या करती. लेहाज़ा बेचारा अभय उतनी बड़ी हवेली में घुटन महसूस करने लगा. जब पूर्णिमा को अपने पति की उपेक्षा सहन न होती तब वह अभय को लेकर राजनगर के राज पैलेस में आ जाती. सुनयना सेठ जी को छोड़कर कैसे चली जाती ? वह उनकी देखभाल के लिए बसुंधरा पैलेस में ही रह जाती. जब पूर्णिमा यहां आती तब रग्घू खुशी से झूम उठता. उसे पूर्णिमा में अपनी बड़ी मालकिन बसुंधरा जी की छवि नजर आती. अभय भी रग्घू से काफी घुल-मिल चुका था. रग्घू को राजनगर के बूढ़े और जवान से लेकर बच्चे तक रग्घू काका कहकर पुकारा करते थे. अभय भी उसे रग्घू काका ही कहकर पुकारने लगा. एक तरह से अभय की अबतक की जिंदगी रग्घू की गोद में ही खेलते हुए बिता था. अगर इस तरह ही दिल्ली से राजनगर और राजनगर से दिल्ली होता रहा तब तो अभय की जिंदगी ही बर्बाद हो जाएगी, ऐसा सोच कर सेठ धनराज ने उसे शिमला के एक कान्वेंट स्कूल में दाखिला करवा दिया. 

   चूंकि सुनयना अब पूरे अठारह वर्ष की हो चुकी थी, इसलिए रग्घू  को उसके विवाह की चिंता सताने लगी.  रग्घू ने एक लड़का देख रखा था, पास के ही गांव का था. लड़का देखने में सुन्दर और सुशील था, ग्रेजुएट भी कर चुका था. रग्घू ने पूर्णिमा राज को उस लड़के को दिखा दिया. पूर्णिमा जी को लड़का पसंद आ गया और उन्होंने अपनी स्वीकृति दे दी. जब रग्घू ने यह खुशखबरी सेठ जी को सुनाई तब वे खुश होने की बजाय उस पर उबल पड़े, क्यों कि सेठजी की नजरों में सुनयना अभी बच्ची थी. मगर वे कर भी क्या सकते थे, सुनयना रग्घू की बेटी थी. उसकी शादी करने, न करने का निर्णय सिर्फ रग्घू ही ले सकता था. सेठ धनराज ने अनमने भाव से अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी. उन्होंने सुनयना की शादी में जी खोलकर खर्च किया. शादी के बाद सुनयना ने भी अपना धर्म निभाया और अपने धर्म-पिता सेठ धनराज जी के साथ ही रहने की इच्छा व्यक्त की. उसकी इस इच्छा पर न तो रग्घू को आपत्ति हुई ओर न ही उसके पति को. सेठजी ने उसके पति को अपनी कंपनी में सुपरवाइजर की नौकरी दे दी. सुनयना अब पंजाबी बाग के बसुंधरा पैलेस में ही रहने लगी. उसका पति भी उसके साथ ही था.

                         *******

  उधर शिमला में अभय अच्छा बनने की वजाए बुरा से बुरा बनता चला गया. जिस स्कूल में उसका दाखिला हुआ था, उसमें अधिकांश अमीरजादे ही थे. और वे सबके सब कुसंस्कारी थे. अभय भी उनके रंग में रंगता चला गया. एमपी किशन राज को न तो अपने बेटे की फ़िक्र थी और न हीं पत्नी की चिंता. उस पर अब केन्द्रीय मंत्री बनने का भूत सवार हो चुका था. मगर एक ही झटके में वह मंत्री कैसे बन जाता.? बड़े बड़े दिग्गज मंत्री बनने का सपना देखते हुए इस दुनिया से कूच कर चुके थे, फिर किशन राज की क्या बिसात?

अपने पति की उपेक्षा पूर्णिमा झेल न पायी. और दिल की मरीज बन गयी. धनराज जी अपनी बहू की हालत देखकर बेशुमार आंसू बहाने लगे. उन्होंने अपने बेटे को कई बार फोन किया , मगर वह निष्ठुर झांकने तक न आया. वैसे तो बसुंधरा पैलेस में नौकर-नौकरानियों की कमी न थी, मगर इस समय ऐसे शख्स की जरूरत थी, जो पूर्णिमा के दिल के बिल्कुल करीब हो. और वो शख्स  था राज खानदान का वफादार सेवक रग्घू. सेठजी ने रग्घू को दिल्ली बुलवा लिया. अपनी छोटी मालकिन की ऐसी हालत देखकर रग्घू का दिल भी तड़पने लगा. बड़े-बड़े डाक्टरों से पूर्णिमा का इलाज करवाने के बावजूद भी सेठ धनराज उसे बचा नहीं पाए. जिस समय पूर्णिमा अंतिम सांसें ले रही थी, उसका पति विदेश दौरे पर था. मृत्यु शैय्या के पास सेठ धनराज, अभय, रग्घू और सुनयना तथा उसका पति था. अभय इस समय 18 वर्ष का हो‌ चुका था. धनराज जी की इच्छा थी कि अभय को उच्च शिक्षा के लिए कैलिफोर्निया भेज दिया जाए. अभय भी यही चाहता था, परंतु पूर्णिमा राज की चिंता जनक हालत को देखकर उन दोनों के सपने चकनाचूर हो गये. दम तोड़ते समय पूर्णिमा ने अभय का हाथ रग्घू के हाथ में सौंपते हुए कहा -"रग्घू काका, मैं अपने कलेजे के टुकड़े को आपके हवाले करके जा रही हूं, कि इसके दादाजी को इतनी फुर्सत नहीं है कि ये इसकी देखभाल कर सके और इसके पिताजी कितने क्रूर हैं, यह तो आप देख ही रहे हैं. आज से आप ही इसके माता-पिता सबकुछ हैं." इसके साथ ही पूर्णिमा जी स्वर्ग सिधार गयी. रोते रोते उन चारों का बुरा हाल हो गया. हालांकि अपनी पत्नी का दाह संस्कार एमपी किशन राज ने ही किया, मगर अभय की नजरों में उसकी मां का क़ातिल उसका बाप ही था. उस दिन से ही उसे नफरत हो गयी अपने बाप से. 

                       *******

पूर्णिमा की मौत का सदमा सेठ धनराज तो बर्दाश्त कर गये, मगर अभय न कर पाया. वह अन्दर ही अन्दर टूट कर रह गया.  वह इतना अपसेट हो गया कि आवारागर्द होता चला गया. नाईट क्लबों में जाने लगा, कुछ आवारा किस्म के दोस्तों ने उसे शराब और बाज़ारू औरतों का चस्का लगा दिया. इस तरह राज खानदान का एकलौता वारिस पतन की खाई में गिरता चला गया. सेठ धनराज जी की समझ में न आया कि वे क्या कर करें.? मजबूर होकर उन्होंने अभय को. राजनगर भेज देने का निर्णय ले लिया. अभय राजनगर जाने के लिए ‌इस शर्त पर राजी हुआ कि उसे पाकेट खर्च के लिए प्रत्येक महीने दो लाख रुपए दिए जाएं. सेठजी राजी हो गये. मगर राज नगर आने के बाद अभय सुधरने की वजाए और भी बिगड़ता चला गया. इस शहर के लुच्चे-लफंगों ने उसे अपना बॉस बना लिया और‌ वे सभी उसकी चमचागिरी करते हुए अपना उल्लू साधने लगे.  इसके बावजूद भी एक गुण था अभय में वह अपने रग्घू काका की काफी इज्जत करता था. उससे ऑंखें मिलाने की उसमें हिम्मत न थी. इस कारण वह राज पैलेस में ऐय्यासी कर नहीं सकता था. उसने शहर के अंतिम छोर पर स्थित अपने एक मकान को अपनी ऐय्यासी का अड्डा बना लिया. एकबार किसी बाजारू औरत को लेकर उसके गुर्गों तथा जीतन बाबू के बीच झड़प हो गयी. तब अभय को भी गुस्सा आ गया, उसे जीतन बाबू पर गुस्सा इसलिए आ गया कि इस उम्र में वे ऐय्यासी कर रहे थे. तब से ही वे दोनों एक-दूसरे के जानी दुश्मन बन गये. चूंकि अभय सेठ धनराज का पौत्र और एएमपी किशन राज का बेटा था इसलिए शहर के 90 प्रतिशत लोग उसके हिमायती थे. इसलिए ही जीतन बाबू और उनके सभी ऐय्यास दोस्त उससे खौफ खाया करते थे. अभय शराब, शबाब और कबाब में डूब कर दिन-दुनिया से बेखबर होता चला गया. हालांकि वह यह सब अपने रग्घू काका से छुपा कर करता, मगर रग्घू इतना भी नादान न था कि उसकी आवारागर्दी को न समझता. रात्रि में भी वह शराब लेने का आदी हो चुका था, इसलिए अपने बेड रूम में भी कीमती शराब की बोतलें रखा करता था, इस बात की जानकारी रग्घू को थी और वह उसे समझाने की कोशिशें भी करता मगर उस पर कुछ भी असर न होता. एक दिन रग्घू ने कुछ ज्यादा ही सख्ती कर दी. तब अभय फूट फूटकर रोते हुए बोला -"काका, मुझे शराब पीने से मत रोको. वरना मॉं के ग़म में मैं मर जाऊंगा." तब से रग्घू ‌ने‌ उसे टोकना ही छोड़ दिया. अब अभय तेईस वर्षीय सुन्दर सलोना युवक बन चुका था.

                           *******

अचानक एक दिन वह हो गया, जिसकी कल्पना तक किसी ने नहीं की थी. काली भयानक रात थी वो. शराब के नशे में धुत् अभय अपनी शानदार गाड़ी को फुल स्पीड में खुद ड्राइव करते हुए राज पैलेस की ओर जा रहा था. अचानक उसकी गाड़ी के सामने एक साइकिल रिक्शा आ गया. उस रिक्शा पर चालक के अतिरिक्त दो‌ सवार भी बैठे थे. उसमें से एक थी अधेर आयु की महिला और दूसरा था अभय की उम्र का ही एक युवक. अभय ने नशे की हालत में भी उस रिक्शे को बचाने की भरपूर कोशिश की मगर तब तक बहुत देर हो चुकी थी. गाड़ी की ठोकर से रिक्शा दूर‌ जाकर गिरा और अभय की गाड़ी एक बिजली के खम्भे से टकरा गई.  चेतना शून्य होते होते  उसे महसूस हुआ कि उसका सर स्टेयरिंग से टकरा कर ज़ख्मी हो चुका है और खून की धारा बहने लगी है. उधर रिक्शा चालक भी रिक्शा के साथ घिसटाते हुए एक पेड़ से टकरा गया और तत्क्षण ही उसकी मौत हो गयी. रिक्शा पर सवार युवक छिटक कर एक गड्ढे में जा गिरा था. चूंकि ‌गड्ढे में पानी भरा था, इसलिए उसे मामूली मामूली सी चोट आई. मगर उसकी मां पक्की सड़क पर सर के बल गिरी थी इसलिए उसका भी सर फट चुका था. और वह अंतिम सांसें लेने लगी थी. उस युवक का नाम ‌था रीतेश. रीतेश गड्ढे से बाहर निकला और इस भयानक दुर्घटना को देखकर स्तब्ध रह गया. कुछ पल फटी फटी ऑंखों से वह सबकुछ निहारता रहा फिर जब उसे एहसास हुआ कि उसकी मॉं मर चुकी है तब वह उसकी मृत देह पर गिर पड़ा और हलक फाड़ कर चीखने-चिल्लाने लगा -"मॉं..........." उसकी हृदयविदारक चीख शांत वातावरण को भंग करती हुई गूंजने लगी. आस पास के लोग दौड़ ‌पड़े और और‌ वहां का विभत्स दृश्य देखकर उनका कलेजा कॉंपने लगा. रीतेश रोते रोते खून से लथपथ अपनी मॉं के शरीर पर बेसुध हो गया. जब लोगों की नजर अभय की गाड़ी पर पड़ी तब सब बुरी तरह से चौंक पड़े. उन्हें समझते देर‌ न‌ लगी कि यह भयानक हादसा राजनगर के एमपी किशन राज के बेटे के द्वारा हुआ है. भीड़ में से किसी ने इस हादसे की सूचना पुलिस को दे दी. कुछ देर में वहां पुलिस जिप्सी के साथ एक एम्बुलेंस भी आ गया. जिप्सी में सब इंस्पेक्टर एस. के. वर्मा के साथ चार कांस्टेबल उतरे. वर्मा जी ‌ने त्वरित कार्रवाई करते हुए सभी घायलों को एम्बुलेंस में ‌लदवाया और स्वयं जिप्सी पर बैठकर शहर के सबसे बड़े हॉस्पीटल दयाल नर्सिंग होम की ओर‌ कूच कर गये. हॉस्पीटल में पहुंचते ही सबों को आइसीयू में भर्ती कराया गया. रिक्शा चालक और रीतेश की मॉं को मृत घोषित कर दिया गया. रीतेश को चूंकि हल्की खरोंचे आयी थी, इसलिए उसे मरहम-पट्टी करके छुट्टी दे दी गयी. मगर वह जाता कहां.? उसकी तो दुनिया ही उजड़ चुकी थी. वह हॉस्पिटल के हॉल में बैठकर अपनी मां के वियोग में तड़पने लगा. अभय की हालत काफी चिंता जनक थी. ड्यूटी पर तैनात सभी डाक्टर उसके उपचार में लग गये मगर खून बंद ही न हो रहा था. एक जूनियर डॉक्टर ने सिनियर डाक्टर दयाल को फोन कर दिया.

यह नर्सिंग होम डा० सी० के० दयाल का ही था. डा० सी. के. दयाल भी सेठ धनराज की कृपा से ही डाक्टर बने थे. डा० दयाल को नर्सिंग होम स्थापित करने के लिए आर्थिक सहयोग सेठ जी ‌ने ही प्रदान किया था. चूंकि  मामला सेठ धनराज जी के पोते का था इसलिए डा० दयाल फौरन वहां उपस्थित होकर अभय के ट्रीटमेंट में लग गये. चूंकि इस घटना का चश्मदीद गवाह रीतेश था, इसलिए ‌वर्मा जी उसका बयान लेने के लिए ‌छटपटाने लगे, लेकिन रीतेश को ग़म में डूबा हुआ देखकर उनकी हिम्मत नहीं हुई उसे टोकने की.

   जब यह मनहूस खबर राज पैलेस में पहुंचीं तब रग्घू के तो होश ही उड़ गये. वह हवेली के अन्य नौकरों के साथ दयाल नर्सिंग होम की ओर दौड़ पड़ा. 

             ∆∆∆∆∆∆

क्रमशः.............!

0 comments:

Post a Comment

 
Top