धारावाहिक उपन्यास
- राम बाबू नीरव
दूसरे दिन ठीक संध्या छः बजे हमलोग दिल्ली के मयूर विहार में स्थित अरविन्द के छोटे से फ्लैट पर पहुंचे. फ्लैट छोटा था, परंतु आकर्षक था. अरविन्द ने अपने खून-पसीने की कमाई से इसे खरीदा था. मेरे दिल की धड़कन तेज हो गयी. अपने दूसरे ससुराल की देहरी पर कदम रखने जा रही थी मैं. प्रथम ससुराल तो विधवा के रूप में गयी थी, अपने पति की अर्थी के साथ, परंतु मयूर विहार में सुहागन के रूप में आयी अपने दूसरे पति अरविन्द के साथ. फिर भी दिल कसक रहा था मेरा. बकौल अरविन्द यहां मुझे आदर का नहीं बल्कि निरादर का सामना करना पड़ेगा. न जाने कैसी फूटी किस्मत लेकर मैं इस जहान में आयी कि सुहागन होने का कोई भी सुख मुझे नसीब न हुआ. मेरे दूसरे श्वसुर जी यानि अरविन्द के पिताश्री फ्लैट के बाहर ही बारामदे पर बैठे थे. मैं चूंकि घूंघट में थी, इस कारण उनके चेहरे के भाव को ठीक से देख नहीं पायी, मगर इतना अंदाजा तो मुझे हो ही गया कि अपने पुत्र के साथ मुझे दुल्हन के रूप में देखकर उनके ऊपर जैसे आसमान टूट कर गिर पड़ा हो. उनके मुंह से उत्तेजना से लवरे कांपता हुआ स्वर निकला -"अरविन्द, कौन है यह लड़की?"
"आपकी बहू....!" अरविन्द का स्वर बिल्कुल शान्त था. मुझे ऐसा प्रतीत हुआ जैसे वह आने वाले तूफान से सामना करने का साहस बटोर रहा हो.
"क्या......?" घूंघट की ओट से ही मैं देख रही थी, मेरे श्वसुर जी का मुंह आश्चर्य से खुला का खुला ही रह गया. हम-दोनों एक साथ उनके चरणों में झुक गये. मगर वे अपने पांव खींचकर पीछे की ओर पलटते हुए चिल्ला पड़े -"अरी, कहां गयी अरविन्द की मां, जल्दी बाहर आओ."
"क्या हुआ जी, क्यों गला फाड़कर चिल्ला रहे हो?" भीतर से जो आवाज आयी उसे सुनकर मेरा सर्वांग कांपने लगा. यह आवाज मेरे पड़ोस की जीबछी काकी की आवाज से भी अधिक कर्कश थी. मुझे चक्कर सा आने लगा. "हे भगवान! यह क्या हो गया....सास के रूप में मुझे ऐसी औरत मिली.?" मैं मन ही मन अपने दुर्भाग्य को कोसने लगी.
"आकर देखो, तुम्हारे कपूत ने कैसा ग़ज़ब कर दिया.?" यह मेरे श्वसुर जी की आवाज थी. वे भी क्रूरता में मेरी सासु मां से रत्ती भर भी कम न थे. तभी मेरे कानों में धप् धप् की आवाज सुनाई दी. यानी मेरी सासु मां बाहर का नजारा देखने के लिए दौड़ती हुई आई रही थी.
"कौन है यह?" आते के साथ उन्होंने सीधा प्रश्न किया और मुझे ऐसा लगा जैसे किसी ने मेरे कानों में पिघला हुआ शीशा डाल दिया हो.
"मां, यह तुम्हारी छोटी बहू है!" यह आवाज मेरे पतिदेव यानी अरविन्द की थी.
"क्या......?" मेरी सासु मां ऐसे चीख पड़ी जैसे उन्हें मिर्गी का दौरा पड़ गया हो.
"हां मां, क्या अपनी बहू की आरती नहीं उतारोगी.?" गजब की सहनशक्ति थी अरविन्द में. वह बिल्कुल शांत, अविचल खड़ा था. मगर मेरे दिल के दर्द को वह भलीभांति महसूस कर रहा था, और मेरे इस दर्द के एहसास ने ही उसे शांत रहने को मजबूर कर दिया था.
"क्या बोला तू आरती....?" सासु मां की कसैली आवाज सुनकर बड़ी मुश्किल से मैं खुद को संभाल पा रही थी. -"आरती उतारूंगी मैं इस चुड़ैल की, इसे तो झाड़ू से मारकर घर से बाहर करूंगी." और सचमुच अपने हाथ में ली हुई झाड़ू उठाकर वे मेरी ओर लपकी. अब अरविन्द के संयम का बांध टूट गया और उसने अपने बलिष्ठ हाथ से उनकी कलाई थाम ली -"खबरदार मां, मेरी पत्नी पर हाथ उठाने की गलती मत करना. इसे मैं मां भवानी के समक्ष अपनी पत्नी बनाकर यहां लाया हूं. और कान खोलकर सुन लीजिए आप लोग.... यह यहीं रहेगी."
"हर्गिज नहीं रहेगी यह यहां." मेरी सासु मां ने साक्षात काली मां का रूप धारण कर लिया. -"यह घर हमारा है और जीते-जी इस घर में मैं किसी कुलटा को घुसने नहीं दूंगी." मुझे लगा कि अब मैं मूर्छित होकर गिर पड़ूंगी, मगर अरविन्द ने मुझे थाम लिया. अरविन्द भी उग्र रूप धारण करते हुए चिल्ला पड़ा -"आप लोग इस भ्रम में मत रहिए कि यह घर आप लोगों का है. इस घर को मैंने अपने खून-पसीने की कमाई से खरीदा है और मेरे इस घर से मेरी व्याहता पत्नी को दुनिया की कोई ताकत नहीं निकाल सकती." अरविन्द मेरी बांह थामकर अपने माता-पिता को ढकेलते हुए मुझे फ्लैट के अंदर ले आया.
"हाय....हाय....!" मेरी सासु मां अपनी छाती पीटती हुई विलाप करने लगी -"देखो जी देखो, अपने लाड़ले बेटे की करतूत देखो, एक कुलटा के लिए इसने अपने माता-पिता को त्याग दिया. हाय रे हाय, मेरे तो करम फूट गये, यह कहता है कि घर उसका है. हाय....हाय, दो दो बेटों को जन्म देने का कोई सुख न मिला हमको " मेरी सासु मां बारामदे में बैठकर अपनी छाती और माथा पीटती हुई अनगिनत श्राप मुझे देने लगी. मेरे दिल का उत्ताप और भी बढ़ गया. मैं इस कर्कशा औरत के साथ अपनी पूरी जिन्दगी कैसे गुजारूंगी.?
अरविन्द मुझे खींचते हुए अपने कमरे में ले आया और एक झटके में उसने मेरा घूंघट उलट दिया. ऑंसुओं से तर मेरा मुखरा देखकर उसके दिल को तीव्र झटका लगा. वह मुझे सांत्वना देते हुए बोला -"देखो माया, मैं तुम्हें पहले ही बता चुका हूं कि मेरी मां थोड़ा उग्र स्वभाव की है. धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा. मैं तुम्हारे लिए भोजन का प्रबंध करके आता हूं." वह बाहर की ओर जाने लगा, मगर मैंने उसकी कलाई थाम ली -
"नहीं अरविन्द, मुझे भूख नहीं है. तुम्हें यदि भूख लगी हो तो तुम खा लो." मैं बिछावन पर बैठ गयी और सोचने लगी -"जब अरविन्द ड्यूटी पर चला जाएगा तब तो मेरे सास-ससुर मुझे तड़पा तड़पा कर मार ही डालेंगे. मेरे हृदय की पीड़ा को महसूस करते हुए अरविन्द भी मेरे निकट बैठ गया और स्नेह से मेरा हाथ दबाते हुए बोला -"माया, तुम दुखी हो न.!"
"मैं इस संसार की सबसे बदनसीब औरत हूं अरविन्द. ठीक ही कहती थी जीबछी काकी. मैं ऐसी डायन हूं जो जनमते ही अपने मां-बाप को खा गयी और कोहबर में ही अपने पति को खा गयी. इस जिन्दगी में मुझे खुशी नहीं मिलेगी अरविन्द.!"
"देखो माया, तुम खामखां अपने भाग्य को मत कोसो. तुम्हारे साथ जो कुछ भी हुआ या हो रहा है वह सब एक दुर्घटना मात्र है. मैं जानता हूं कि दकियानूसी विचारों के मेरे माता-पिता तुम्हें चैन से नहीं रहने देंगे, इसलिए मैंने पहले से ही इसी कॉलोनी में एक फ्लैट किराए पर ले रखा है. आज की रात तुम किसी भी तरह से यहां गुजारा कर लो, कल्ह सुबह ही हमलोग अपने उस फ्लैट में शिफ्ट कर जाएंगे.!"
वह अपनी अंगुलियों से मेरे ऑंसू पोंछने लगा. उसकी बातों से मेरे दिल को तसल्ली मिली.
अरविन्द की इच्छा थी कि आजकी रात हमारी सुहागरात हो, परंतु अपने श्वसुर जी और सासु मां के हंगामे को देखते हुए मैंने उसके प्रस्ताव को नकार दिया. यह अरविन्द की महानता थी कि उसने इसके लिए मुझपर दवाब नहीं डाला.
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जिस नये फ्लैट में मैं अपने पति अरविन्द के साथ आयी, उसमें सिर्फ दो ही कमरे थे. मगर फ्लैट आकर्षक और साफ-सुथरा था. और चाहे जो भी हो, कम-से-कम यहां सुकून तो था. अरविन्द ने अपने माता-पिता को इस फ्लैट के बारे में विस्तृत जानकारी नहीं दी थी. हां उन्हें इतना तो मालूम हो ही चुका था कि अरविन्द मुझे दूसरी जगह ले आया है. बड़े शहरों में अगल बगल में रहने वाले लोग भी एक-दूसरे से अपरिचित रहते हैं, फिर मैं तो अपने सास-ससुर से काफी दूर आकर रहने लगी. इसलिए उन्हें पता ही न चला सका कि मैं कहां हूं ? उस दिन अरविन्द होटल से भोजन ले आया. हम-दोनों ने एक साथ भोजन किया. अरविन्द तो ड्यूटी पर चला गया. मैं दिनभर फ्लैट की साफ-सफाई में लगी रही. ड्यूटी से वापस आते समय वह राशन के साथ साथ मेरे लिए अन्य जरूरी सामान भी लेता आया था. उसका असीम प्यार पाकर मैं निहाल हो गयी और अपनी सारी पीड़ा भूल गयी. उसी रात हमारी सुहागरात हुई और हम-दोनों ने दाम्पत्य जीवन का प्रथम आनंद प्राप्त किया.
अब मैं खुश थी, बहुत खुश. अरविन्द के रूप में मुझे भगवान मिल चुका था. मैं यह भी नहीं चाहती थी कि अरविन्द मेरे मोह में फंसकर अपने माता-पिता को भूल जाये, इसलिए मैं जबरदस्ती उसे उनके पास भेजने लगी. कभी कभी वह अपने उसी फ्लैट पर सो जाया करता. मुझे इस बात की पूरी उम्मीद थी कि एक न एक दिन अरविन्द के माता-पिता मुझे बहू के रूप में स्वीकार कर लेंगे, परंतु अरविन्द को रत्ती भर भी इसकी आशा न थी.
धीरे-धीरे हंसी-खुशी के साथ कैसे तीन महीने बीत गये, हमें पता ही न चला. एक दिन मैं अरविन्द से विनती करती हुई बोली
"अरविन्द, मुझे भैया-भाभी और रीतेश की बहुत याद आ रही है, एक बार वहां चलो न."
"पागल हो गई हो क्या.?" वह मुझे झिड़कते हुए बोला -"तुम्हारे गांव के लोग कितने कट्टरपंथी और डपोरशंखी हैं, क्या तुम नहीं जानती.? वे लोग तुम्हें विवाहिता के रूप में देखकर तुम्हारे साथ साथ मेरी भी जान ले लेंगे. भूल जाओ उन लोगों को." मैंने अरविन्द पर अधिक दवाब डालना उचित नहीं समझा, क्योंकि अपने कारण मैं अरविन्द की जान को जोखिम में डालना नहीं चाहती थी.
जिस कंस्ट्रक्शन कंपनी में अरविन्द काम कर रहा था वह कंपनी मयूर विहार में ही एक सात मंजिला बिल्डिंग बनवा रही थी. एक दिन वह मुझे अपने उस साइट पर ले गया था और वहां अपने कुछ खास मित्रों से मिलवाया भी था. उसके उन मित्रों में से एक संदीप का स्वभाव मुझे काफी अच्छा लगा. संदीप उस दिन से ही मुझे भाभी कहकर पुकारने लगा और मैं भी उसे देवर मानकर उसे अपना अनुराग देने लगी. कुछ ही दिनों में संदीप मुझसे काफी घुल-मिल गया. मैं जब भी कोई नया पकवान बनाती, तब उसे रात्रि भोजन पर जरूर बुलाती. मेरे हाथों की बनी हुई मछली कढ़ी उसे काफी पसंद थी. एक दिन लगभग सात बजे शाम में संदीप बदहवास सा फ्लैट पर आया और मेरी कलाई थाम कर खींचते हुए मुझे साइट की ओर ले जाने लगा. उसकी इस हरकत को देख कर मैं बिल्कुल हैरान रह गयी. मेरी समझ में नहीं आया कि आखिर यह मुझे साइट की ओर ले क्यों जा रहा है. मैं उसका हाथ झटकती हुई उसपर बिफर पड़ी -"यह क्या बदतमीजी है संदीप, तुमने किस हैसियत से मेरी कलाई पकड़ी.?"
"मुझे माफ़ कर दो भाभी." वह अपनी ऑंखों से बेशुमार ऑंसू बहाते हुए बोला -"अरविन्द के ऊपर क्रेन टूट कर गिर पड़ा है?"
"क्या.....?" इस मनहूस खबर को सुनकर मुझपर क्या बीती मैं व्यक्त नहीं कर सकती.
संदीप पुन: कहने लगा - "हां भाभी, वह बुरी तरह से ज़ख़्मी हो चुका है और अंतिम सांसें ले रहा है."
"नहीं.......!" मेरे मुंह से हृदयविदारक चीख निकली और मैं बावली से होकर साइट की ओर दौड़ पड़ी. वहां पहुंचते पहुंचते बेदम हो चुकी थी मैं. सैकड़ों की संख्या में लोग अरविन्द को घेर कर खड़े थे. मेरे वहां पहुंचने से पूर्व ही अरविन्द के प्राण पखेरू उड़ चुके थे और अरविन्द के माता-पिता उसके मृत शरीर पर सर पटक पटक कर विलाप कर रहे थे. मेरी समझ में नहीं आया कि विधाता के इस अन्याय पर हंसूं या कि रोऊं. फटी फटी ऑंखों से मैं एकटक खून से लथपथ अपने मृत पति को निहारे जा रही थी. संदीप ने मुझे झकझोरा -"भाभी, भाभी होश में आइए." संदीप के झकझोरने पर मेरी चेतना लौटी और मैं "अरविन्द....... मेरे अरविन्द " चिल्लाती हुई, भीड़ को चीरकर भीतर घुस गयी. कुछ पल उसके निष्प्राण शरीर को पथराई हुई ऑंखों से देखती रही, फिर पछाड़ खा कर उसके शरीर पर गिर पड़ी. इस संसार में मुझसे बड़ी अभागन शायद दूसरी कोई न होगी. दो दो बार मैं सुहागन बनी और दोनों बार विधवा बन गयी. ठीक ही कहा करती थी जीबछी काकी -"मैं डायन हूं, चुड़ैल हूं ...... अपने दूसरे पति अरविन्द को भी खा गयी." जब मेरी सासु मां की नजर मुझ पर पड़ी, तब उनके तलवे की लहर कपार पर आ गयी और हलक फाड़ कर चिल्लाती हुई वह मुझपर टूट पड़ी -
"डायन, कुलटा तू ही मेरे बेटे को खा गयी. हट जा यहां से नागिन." लात घूसों से मुझे धुनने के बाद वह मुझे घसीटती हुई मुख्य सड़क तक ले आयी . वह चूंकि सूनसान इलाका था और अंधकार भी काफी बढ़ चुका था, इसलिए कोई देख नहीं पाया कि मेरी कर्कशा सास मुझे घसीटती हुई किधर ले गयी है. पता नहीं, उसमें इतनी ताकत कहां से आ गयी थी कि उसने मुझे उठाकर काफी दूर उछाल दिया. जैसे ही मैं सड़क पर गिरी कि उसी समय एक गाड़ी आ गयी और मैं उस गाड़ी की चपेट में आकर चेतना शून्य होती चली गयी. मैंने तो समझा.... अरविन्द के साथ मेरी भी कहानी खत्म हो चुकी है.... परंतु हाय रे मेरी किस्मत......?
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क्रमशः........!
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