धारावाहिक उपन्यास 


-रामबाबू नीरव 

"आह.......!" एक कराह के साथ मेरी ऑंखें खुल गई. सर में असह्य पीड़ा हो रही थी. हाथों से सर को टटोलने लगी. पता चला - मेरे पूरे माथे में पट्टी बंधी हुई है, यानी मेरे सर गहरी चोट लगी थी. इतना बड़ा हादसा होने ‌के बावजूद मैं बच कैसे गई, यही मेरे लिए आश्चर्य की बात थी. मैं अपनी ऑंखों की पुतलियां नचाकर चारों ओर देखने लगी. वह एक बहुत बड़े और महंगे अस्पताल का वातानुकूलित कमरा था. मुझे इतने महंगे अस्पताल में कौन लेकर आया? इस सच्चाई को जानने के लिए मैं उठने की कोशिश करने ‌लगी. 

"नहीं.... नहीं, तुम उठो मत, तुम्हारी पट्टी खुल जाएगी." इस मृदुल और स्नेहसिक्त स्वर को सुनकर मैं चौंक पड़ी और भौंचक सी उस भद्र पुरुष को निहारने लगी जो मेरे बेड के करीब बैठे थे. 

"आप.....?" मैं उत्सुकता पूर्वक उनकी ओर देखने लगी.

"मेरा नाम किशन राज है और मैं ही तुम्हें इस हॉस्पिटल में लेकर आया था. 

"क्यों..... क्यों लाए आप मुझे यहां." उन्हें धन्यवाद देने की बजाए मैं उन पर बिफर पड़ी. मेरे इस व्यवहार को देखकर वे एकदम से आश्चर्यचकित रह गये. मैं उन्माद में आकर अनाप-शनाप बकती चली गयी -"मुझे मर जाने दिया होता. मैं डायन हूं..... चुड़ैल हूं. जिस किसी के ऊपर भी मेरी मनहूस छाया पड़ती है, वह काल के गाल में समा जाया करता है. खा गयी मैं, सब को खा गयी. बचपन में अपने मां बाप को खा गयी. कोहबर में ही अपने पहले पति को निगल गयी और अब अपने दूसरे को भी...." आगे मैं कुछ बोल नहीं पायी. हिचकियां ले लेकर रोने लगी. किशन राज जी अकबकाये हुए से मुझे देख रहे थे. कुछ पल बाद वे मुझे  सांत्वना देते हुए स्निग्ध स्वर में बोले-

"देखो अभी तुम शांत हो जाओ."

"कैसे शांत हो जाऊं, कैसे? आपको नहीं पता मेरे ऊपर दुखों का कितना बड़ा पहाड़ टूटकर गिर पड़ा है. अब और दु:ख सहने की शक्ति नहीं है मुझ में. कृपा करके मुझे दवा के बदले ज़हर दिलवा दीजिए. मैं अब इस संसार में रहना नहीं चाहती." अब मैं अपना मुंह ढांप कर रोने ‌लगी. मेरा क्रंदन पूरे कक्ष में गुंजने लगा. 

"इस संसार में केवल तुम ही दुखी नहीं हो. हर एक प्राणी दुखी हैं यहां. जो दुखों से घबरा कर आत्महत्या कर लेते हैं, वे कायर होते हैं. यदि तुम्हारी तरह सभी आत्महत्या करने लग जाएं, तब तो इस पृथ्वी पर एक भी इंसान नहीं बचेगा."

"मैं औरों के बारे में नहीं जानती, मेरे साथ ऐसी-ऐसी घटनाएं घटी हैं, जिन्हें यदि आप सुन लेंगे तब आप भी मुझे यही कहेंगे कि मुझे मर जाना चाहिए."

"चुप" उन्होंने मुझे कसकर डपट दिया -"मैं तुम्हारी तरह कायर नहीं हूं. मैंने तुम्हारी जान बचाई है इसलिए मेरा यह हक़ बनता है कि मैं तुम्हारे बारे में जानूं. क्या तुम अपनी कहानी मुझे सुना सकती हो?"

"नहीं.... नहीं सुनाऊंगी." मैं साफ साफ इंकार करती हुई बोली.

"क्यों नहीं सुनाओगी?" उनकी आवाज में सख्ती आ गयी.

"क्योंकि मैं अपनी दर्दनाक कहानी सुनकर आपको दुखी करना नहीं चाहती."

 "दु:ख-दर्द बांटने से पीड़ा कम होती है." 

"यह आपकी सोच हो सकती है, मैं ऐसा नहीं सोचती."

"तुम तो एकदम से अपनी जिद़ पर अड़ गयी हो. लेकिन मैं भी कम जिद्दी नहीं हूं, यदि तुमने अपनी कहानी नहीं सुनाई तो मैं यहीं भूख हड़ताल पर बैठ जाऊंगा." हालांकि वे तल्खी से बोले थे, लेकिन उनकी इस तल्खी में भी परिहास का पुट था. फिर वे नर्स की ओर देखते हुए बोले-"सिस्टर इसके लिए जूस लेकर आओ." 

"यह सर, अभी लाई." नर्स जाने के लिए मुड़ गयी.

"ठहरो सिस्टर." तभी मैं नर्स को रोकती हुई बोल पड़ी -"जूस एक ग्लास नहीं, दो ग्लास लाना."

"दो ग्लास क्यों?" उन्होंने मेरी ओर हैरानी से देखते हुए पूछा. 

"एक मेरे लिए और एक आपके लिए."

"ओह....!" वे मुस्कुराने लगे. -"तो तुम्हें मेरा भी ख्याल है." 

"मेरी खातिर आप रात भर जगे हैं, इसका अंदाजा तो मैं लगा ही चुकी हूं." मैं धीरे धीरे सहज होने लगी. ये चाहे जो भी हों लेकिन दिल के अच्छे इंसान हैं.  इन्हें अपनी दर्द भरी दास्तान सुना देना ही उचित होगा. मैं मन ही मन किशन राज जी के व्यक्तित्व की परिकल्पना में खो गयी. कुछ ही देर बाद नर्स दो ग्लास चूस लिए हुई अंदर दाखिल हुई. किशन राज जी ने अपने हाथ से जूस मेरी ओर बढ़ाते हुए मृदुल स्वर में कहा. -

"लो, जूस पी लो."

"पहले आप पीजिए."

"ठीक है, यह ग्लास तुम लेलो, मैं दूसरा ले लेता हूं." मैं उनके हाथ से ग्लास लेकर एकटक उनकी ओर देखने लगी.  "क्या देख रही हो.?" उन्होंने मुस्कुराते हुए पूछा.

"आप इंसान नहीं फरिश्ता हैं." 

"बातें न बनाओ, जूस पियो."

"जी धन्यवाद." हम दोनों एक साथ जूस पीने लगे. जूस पीने के बाद सचमुच मुझे में स्फूर्ति आ गयी. उन्होंने नर्स को वहां से जाने का इशारा कर दिया. नर्स बिना कोई प्रतिवाद किये वहां से चली गयी. नर्स के जाने के बाद मैं बेड के पुश्त से पीठ टिका कर बैठ गयी. गनीमत थी कि उस हादसे में मैं गम्भीर रूप से ज़ख्मी नहीं हुई थी. सिर्फ मेरे सिर में चोट आई थी. दहशत के मारे ही मैं लगातार दस घंटे तक बेहोश रही. हालांकि मेरी सास तो अपनी समझ से मुझे मार ही चुकी थी. तेज रफ्तार से आ रही गाड़ी के सामने फेंके जाने के बाद भी कोई क्या जिंदा रह सकता है? मगर मैं ऐसी अभागिन निकली कि अब तक जिंदा हूं. शुरू से लेकर अब तक की पूरी घटना किशन राज जी को सुनाने के बाद मैं अपना मुंह ढांप कर पुनः रोने लगी. कुछ देर तक उन्होंने मुझे रोने दिया फिर मेरे प्रति हमदर्दी जताते हुए संजिदगी से बोले -

"सचमुच माया तुम्हारी कहानी बहुत ही दर्दनाक है. अब बताओ तुम क्या करोगी.? तुम्हारे पति की तो मौत हो चुकी है. सास-ससुर तुम्हें रखेंगे नहीं, यह तय है."

"आप ही बताइए मैं क्या करूं?" मैंने अपने आंसू पोंछते हुए पूछा.

"मेरी राय है कि तुम अपने बड़े भैय्या और भाभी के पास ही चली जाओ. उन्होंने तुम्हें बचपन से पाला है, इसलिए उनके दिलों में प्यार अवश्य उमड़ रहा होगा."

"जी, मैं भी ऐसा ही सोचती हूं." उनका स्नेह भरा अपनत्व पाकर मुझे असीम शांति मिली.

"लेकिन तुम जाओगी किसके साथ.?" 

"यही तो मैं नहीं समझ पा रही हूं....इतने बड़े शहर में मेरा अपना तो कोई है ही नहीं?" एकबार फिर मेरा दिल कसक उठा. 

"खैर तुम चिंता मत करो, वैसे तो मैं तुम्हें अपने किसी खास आदमी के साथ भी भेजवा सकता था, परंतु आज के जमाने में किसी पर भी भरोसा करना अच्छा नहीं लगता. इसलिए मैं स्वयं तुम्हें तुम्हारे गांव ले जाऊंगा.

"जी......!" चकित रह गयी मैं. मेरी इच्छा हुई कि मैं उनके चरण छू लूं, परंतु ऐसा कर नहीं पायी. 

"हां माया, तुमने ठीक सुना मैं ही तुम्हें तुम्हारे गांव ले जाऊंगा. परंतु इस हालत में वहां जाना ठीक नहीं होगा. कुछ दिन तुम इसी अस्पताल में आराम करो, जब तुम्हारे ज़ख़्म भर जाएंगे, तब मैं वहां पहुंचा दूंगा." 

"जी, आपका बहुत बहुत धन्यवाद." मैं उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करती हुई बोली.

"मेंसन नॉट." उन्होंने हंसते हुए कहा -"मैं तुम्हारे लिए कुछ कपड़े भिजवा देता हूं, उनमें से जो जो तुम्हें पसंद आये रख लेना." वे उठकर खड़े हो गये -"अब मैं तुम्हें ले जाने के लिए तीन दिनों बाद आऊंगा. यहां तुम्हें किसी भी तरह की परेशानी नहीं होगी." मैं कुछ न बोली. उनकी सज्जनता ने मुझे विमूढ़ कर दिया था. एकटक उन्हें निहारे जा रही थी और जब वे चले गये तब सूने द्वार की ओर देखने लगी. उनके जाने के कुछ ही देर बाद नर्स अंदर आ गई. मेरे मन में अब किशन बाबू के बारे में जानने की उत्सुकता बढ़ गयी. नर्स की ओर देखती हुई मैं मृदुल स्वर में उससे पूछ बैठी -"सिस्टर क्या आप उनको जानती हैं?"

"हां हां क्यों नहीं जानती, वे बहुत बड़े उद्योगपति हैं.... वसुंधरा फूड प्रोडक्ट्स प्रा० लि० के मालिक मि० किशन राज जी."

"क्या.....?" हैरत से मेरी ऑंखें फटी की फटी रह गयी. 

"मैडम शुक्र मनाइए कि आप किशन राज जी की गाड़ी से टकराईं थी. इसलिए बच गयी. यदि अन्य कोई रहा होता तो आपको घटना स्थल पर ही तड़पता हुआ छोड़कर भाग गया होता?"

नर्स ने क्या कहा और क्या नहीं यह मैं नहीं समझ पायी, मैं तो यही ज आग नौकर हैरान परेशान थी कि मुझे नयी जिन्दगी देने वाले वसुंधरा फूड प्रोडक्ट्स प्रा० लि० के मालिक हैं.

        जिस माया की औकात गाड़ी पर भी चलने की नहीं थी, वह आज किशन राज जी के साथ आकाश में उड़ रही थी. सपने में भी मैंने नहीं सोचा था कि इस जिन्दगी में कभी हवाई जहाज पर भी सफ़र करूंगी. तकदीर कैसे कैसे खेल दिखाती है इंसान को. कभी हंसाती है तो कभी रूलाती है. किशन राज जी के साथ हवाई जहाज में बैठी हुई मैं किस्मत के इस अजीबोगरीब खेल पर ही मन ही मन हंस भी रही थी और रो भी रही थी. मुझे उम्मीद न थी कि इस जीवन में दुबारा भैय्या भाभी और रीतेश से मिल भी पाऊंगी. मैं किशन राज जी की आभारी थी जो वे मुझे अपने परिजनों से मिलवाने के लिए ले जा रहे थे. प्लेन में ही उन्होंने मुझे बता दिया कि उनकी कंपनी का एक ऑफिस पटना में भी है. शाम के लगभग छः बजे हमलोग पटना हवाई अड्डा पर पहुंच गये. उनकी ऑफिस के कई स्टाफ वहां हमारे स्वागत के लिए खड़े थे. मैं तो आरंभ से ही मेनका की तरह सुन्दर थी. भले ही दुःख-दर्द ने मुझे अंदर से तोड़ दिया हो, मगर मेरे सौंदर्य में रत्ती भर भी कमी न आयी थी. सिर्फ मेरे मांग में सिंदूर न था, बाकी मेरे लिबास और शृंगार किसी उच्च घराने की संभ्रांत महिलाओं जैसे ही थे. उनकी कम्पनी के सारे स्टाफ मुझे मिसेज किशन राज समझकर हमारा स्वागत कलने‌ लगे थे. पल भर के लिए मैं अपने इस क्षणिक ऐश्वर्य पर इतराने लगी. मगर इन लोगों को क्या पता दु:ख-दर्द की मारी मैं ऐसी अभागिन हूं, जिसकी परछाईं भी अगर किसी पर पड़ जाए तो वह काल कवलित हो जाता है. खैर, उनकी विदेशी गाड़ी से हमलोग ऑफिस आए. गाड़ी में उनके साथ ही बैठने की मेरी मजबूरी थी. चूंकि शाम ढल चुकी थी, इसलिए गांव जाना अब संभव न था. उनके ऑफिस के गेस्ट रूम में ही मुझे रात गुजारनी पड़ी. भैय्या भाभी और रीतेश से मिलने की उत्कंठा में मैं ठीक से सो नहीं पायी.

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क्रमशः.......!

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