- रामबाबू नीरव
एक ही रात में हतभागिन माया, "बसुंधरा फूड प्रोडक्ट्स प्रा० लि० के मालिक किशन राज जी की पत्नी बन गयी. भले ही उन्होंने मुझे दूसरी पत्नी का दर्जा दिया था, मगर मैं उनकी पत्नी तो थी. मैं उनकी पत्नी बन चुकी हूं, इसके साक्षी देवघर के सिर्फ बाबा बैद्यनाथ भोलेशंकर ही थे. दिल्ली के लाजपत नगर में उनकी दूसरी भव्य कोठी थी. वे मुझे अपनी उसी कोठी में लेकर आ गये. उस कोठी की सुन्दरता और भव्यता देखकर तो जैसे मेरे होश ही उड़ चुके थे. इतनी बड़ी कोठी की मैं मालकिन बनूंगी, इस एहसास से मेरी हसरतें सातवें आसमान को छूने लगी. सच ही कहा है बड़े बुजुर्गो ने कि मनुष्य का भाग्य कब कौन सा करवट बदलेगा इस सत्य को सृष्टिकर्ता भी नहीं जानते. क्षण भर के लिए मैं अपने इस बदले हुए भाग्य पर इतराने लगी.
उस विशाल कोठी में अनेकों नौकरों के साथ साथ नौकरानियां भी थी. उन नौकरानियों में शैव्या नाम की नौकरानी मुझे प्रथम दृष्टि में ही भा गयी. वह थी तो सांवली, मगर उसके नयन-नश्क काफी कटिले और तीखे थे. वह मुझसे पांच या छः साल की बड़ी रही होगी. मेरे पति किशन राज जी ने उन लोगों से मेरा परिचय "मिसेज किशन राज" के रूप में ही करवाया. इस कोठी के लोगों ने संभवतः उनकी धर्मपत्नी को देखा न था, इसलिए उन्हें भ्रम हो गया कि मैं ही उनकी धर्मपत्नी "श्रीमती पूर्णिमा राज" हूं. हालांकि वे सभी जानते थे कि उनकी पत्नी अपने श्वसुर जी और पुत्र के साथ पंजाबी बाग में स्थित बसुंधरा पैलेस में रहती हैं. एकाएक उनके साथ मेरा इस कोठी में आना कुछ अटपटा सा तो उन्हें लगा था, शायद उन लोगों ने यह सोचा हो कि कोठी सेठ जी की है, अपनी पत्नी को यहां रखें या वहां, क्या फर्क पड़ता है ?
मैं उनके साथ जैसे ही अंदर दाखिल होने लगी कि शैव्या हमारे सामने आ गयी और किशन राज जी से विनती करती हुई बोली -"थोड़ी देर रूक जाइए मालिक, मालकिन पहली बार इस बंगले पर आयी हैं, इनका स्वागत सत्कार करना हमारा धर्म बनता है." न तो मैं और न ही मेरे पतिदेव ही शैव्या की पवित्र भावना को समझ पाये. हमलोग अकबकाये हुए से एक दूसरे का चेहरा देखते रह गये. मजबूरन हमें हॉल के द्वार पर ही कुछ देर रूक जाना पड़ा. कुछ ही देर में पूजा की थाली लिये हुई शैव्या वहां आ गयी. आरती उतारने के बाद हम-दोनों के ललाट पर कुंकुम का टीका लगा दी. फिर पुष्प और अक्षत हमारे ऊपर छिड़कती हुई मृदुल स्वर में मुझसे बोली -
"मालकिन पहले आप अपना दाहिना पांव अंदर रखिए." उसने जो कहा, मैंने वही किया. असल में उसकी इस आत्मीयता को देखकर मैं इतनी भाव-विभोर हो चुकी थी कि मेरी इच्छा हुई उसके चरणों में गिर पड़ूं. परंतु शीघ्र ही मैंने खुद को रोक लिया. पलक झपकते ही मुझे इस बात का एहसास हो गया कि अब मैं साधारण माया नहीं हूं, बल्कि माया राज हूं. वसुंधरा फूड प्रोडक्ट्स प्रा० लि० के मालिक मि० किशन राज जी की पत्नी. इसलिए इस आलीशान कोठी और राज खानदान की गरिमा का ख्याल तो रखना ही होगा. मगर लाख रोकने के बाद भी मेरी ऑंखों से खुशी के चंद बूंद ऑंसू टपक ही पड़े. अपने प्रथम ससुराल तो खैर मैं एक विधवा के रूप में गयी थी और दूसरे ससुराल में मेरी सासु मां ने झाड़ू से मेरा स्वागत किया था. मगर यहां यह एक परायी औरत, जिसकी मैं कोई नहीं लगती, मुझे इतना बड़ा सम्मान दे रही है. शैव्या के प्रति मेरे मन में श्रद्धा का भाव उमड़ पड़ा.
उस दिन शैव्या ने हम पति-पत्नी को छप्पन भोग का भोजन कराया. मेरी आत्मा तृप्त हो गयी. मेरे साथ साथ किशन राज जी भी शैव्या के इस अद्भुत कौशल और अनुराग को देखकर दंग रह गये. वह रात मेरी ज़िन्दगी की सबसे हसीन रात साबित हुई. मैंने अपना सर्वस्व उन्हें अर्पित कर दिया. उन्होंने उस प्रथम रात में उपहार स्वरूप एक बहुत ही कीमती नेकलेस मुझे प्रदान किया. उनका वह उपहार पाकर मैं निहाल हो गयी. उसी क्षण मैं अतीत को भूल गयी और वर्तमान में जीने लगी.
***
अब मेरी दुनिया बदल चुकी थी. मेरे पति किशन राज जी मुझे खुश रखने की पूरी कोशिश किया करते. प्रत्येक दिन मेरे लिए कोई न कोई उपहार लाते. वैसे मुझे उन उपहारों की उतनी चाहत न थी, जितनी कि उनके प्यार की. मगर कुछ दिनों बाद मुझे ऐसा लगने लगा जैसे मैं किसी के साथ अन्याय कर रही हूं. किसी का प्यार छीन रही हूं. यह अपराध बोध मुझे उद्वेलित करने लगा. एक रात मैं उनसे विनती करती हुई बोली -"आप मेरे स्वामी हैं, परंतु आप पर प्रथम अधिकार दीदी का है."
"दीदी....कौन दीदी." वे चिहुंक पड़े.
"पूर्णिमा दीदी.... आपकी धर्मपत्नी."
"तुम भी तो मेरी धर्मपत्नी हो."
"हां....हूं , मगर सिर्फ आपकी नजरों में. यह मेरा दुर्भाग्य है कि मैं अनजाने ही आपकी ज़िन्दगी में आ गयी."
"फिर वही बात." वे झुंझला पड़े.
"नहीं...." मैं भी थोड़ा खीझती हुई बोली -"आपको मेरी पूरी बात सुननी होगी. जब मैं एकांत में होती हूं, तब मेरे भीतर से एक आवाज आती है - माया तुम किसी का प्यार छीन रही हो. और तब मैं अपराध बोध से ग्रसित हो जाती हूं."
"देखो माया पूर्णिमा, राज खानदान की गृह लक्ष्मी है, उसे जो मान-सम्मान मिलना चाहिए....!"
"मैं मान-सम्मान की बात नहीं कर रही हूं." मैं उनकी बात बीच में ही काटती हुई तपाक से बोल पड़ी -"प्यार की बात कर रही हूं. पति-पत्नी के बीच जो राग और अनुराग होता है, उसकी बात कर रही हूं."
"माया क्या तुम यह कहना चाह रही हो कि मैं यहां न आऊं." उनकी झुंझलाहट धीरे धीरे क्रोध में बदलने लगी.
"मैंने ऐसा कब कहा.?" मैं उनके क्रोध को देखकर हंस पड़ी. -" मैं तो सिर्फ यह कहना चाहती हूं कि मैं दीदी का जो अधिकार है उसे नहीं छिनूंगी."
"मतलब.....?" वे चकित भाव से मुझे घूरने लगे.
"मतलब कुछ नहीं, आप इस कोठी में पूरी रात नहीं बितायेंगे. सिर्फ दो से तीन घंटा ही रहेंगे यहां, बाकी पूरी रात आप बसुंधरा पैलेस में रहेंगे, बोलिए मानेंगे न मेरी बात.?" मैं आग्रह पूर्ण नेत्रों से उनकी ओर देखने लगी. कुछ पल मौन भाव से वे मेरी ओर देखते रहे, फिर एकाएक हंसते हुए बोल पड़े -"एक बात कहूं माया.?"
"हां कहिए ना." मेरी ऑंखों की पुतलियां नाचने लगी.
"तुम अद्भुत हो."
"धत्......!" मेरी इस निश्छल अदा पर वे मुग्ध हो गये और मैं उनकी आगोश में समा गयी.
*****
शैव्या के स्वभाव का ही एक नौकर था उस कोठी में. उसका नाम था जगन्नाथ, मगर सभी उसे जग्गू कहकर पुकारा करते थे. वह मुझसे उम्र में छोटा था. बाद में मुझे पता चला कि वह शैव्या का फुफेरा भाई है. बचपन में ही उसके माता-पिता का स्वर्गवास हो गया था, तब शैव्या उसे अपने घर ले आयी और उसे पाल-पोस कर बड़ा किया. जग्गू शैव्या को दीदी की जगह मां कहने लगा था. शैव्या ने भी कभी उसे मां की कमी महसूस न होने दी. उस कोठी के उत्तर दिशा में नौकरों के लिए कुछ क्वार्टर बने थे, उन्हीं क्वार्टरों में से एक में शैव्या अपने पति तथा दो बच्चों के साथ रहती थी. चूंकि जग्गू की अभी शादी नहीं हुई थी इसलिए वह भी उसी के साथ रहता था. शैव्या क पति कोठी में माली का काम किया करता था. मैं कोठी के सभी नौकरों के साथ काफी घुल-मिल गयी. खासकर शैव्या, उसके पति, दोनों बच्चों तथा जग्गू से. शैव्या को तो मैं प्रथम दिन से ही अपनी बड़ी दीदी मानकर भरपूर सम्मान देने लगी थी. वह मेरे इतने करीब आ गयी कि लगने लगा जैसे हम दोनों सगी बहनें हों. मैं शैव्या को दीदी कहकर पुकारने लगी. वह अभिभूत हो उठी और खुशी के ऑंसू बहाती हुई मुझसे इस तरह लिपट गयी जैसे बिछुड़ी हुई दो बहनें मिलती है. अब चूंकि शैव्या के साथ मेरा एक पवित्र रिश्ता बन चुका था, इसलिए वह भी मुझे दीदी कहकर पुकारने लगा. एक दिन मैं लॉन में शैव्या के साथ घूम रही थी. फूलों की क्यारी में पानी पटा रहे शैव्या के पति अकलु पर मेरी नजर पड़ गयी. मैं परिहास पूर्ण स्वर में उन्हें पुकारती हुई बोल पड़ी-
"जीजा जी, सिर्फ उधर ही पानी पटाइएगा या इधर भी पटाइएगा." मेरा इशारा शैव्या की और था. वे बुरी तरह से चौंक पड़े और मेरे करीब आकर बोले -
"मालकिन, यहां तो कोई नहीं है, फिर आप जीजाजी किसे कह रही हैं?"
"आपको कह रही हूं." उनका चेहरा देखकर मैं बेतहाशा हंस पड़ी.
"क्या.....?" वे मुझे विस्फारित ऑंखों से देखने लगे.
"इस तरह से मुझे घूर क्यों रहे हैं जीजाजी. आप ही बताइए आपकी पत्नी को मैं दीदी कहती हूं कि नहीं.?"
"हां......वह तो है....!"
"तो फिर आप मेरे जीजू हुए कि नहीं."
"हां..... लेकिन मैं आपको मालकिन ही कहूंगा."
"आपको जो कहना हो कहिए, मैं तो आपको जीजू ही कहूंगी." मेरी निश्छलता और बिंदास अंदाज को देखकर शैव्या भी जोर जोर से हंसने लगी. उस दिन से शैव्या के दोनों बच्चे भी मुझे मौसी कहकर पुकारने लगे. और मुझे लगने लगा जैसे इस कोठी में मुझे एक नया संसार मिल गया हो.
चूंकि शैव्या अब मेरे काफी करीब आ चुकी थी, इसलिए मैंने उसे अपनी दास्तान सुना देना उचित समझा. जिन्दगी के इस सफर में कोई न कोई हमराज़ तो होना चाहिए न. एक दिन मौका पाकर मैंने उसे अपनी पूरी कहानी सुना दी. मेरी दर्द भरी कहानी सुनकर शैव्या का रोते रोते बुरा हाल हो गया. जहां उसे मुझे सांत्वना देना चाहिए था, वहां मैं उसे सांत्वना देने लगी. उस दिन से उसके दिल मेरे प्रति एक अजीब तरह की कशिश पैदा हो गयी, जिसमें प्यार भी था और अनुराग भी. श्रद्धा भी थी और ममता भी. मैं दावे के साथ कहूंगी कि शैव्या एक महान औरत है जिसने जगन्नाथ उर्फ जग्गू जैसे अनाथ को एक नयी जिन्दगी दी.
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क्रमशः........!
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