"धारावाहिक उपन्यास"
-रामबाबू नीरव
बचपन से ही जब मैं उमंग में होती, तब विद्यापति जी के गीत गुनगुनाने लगती. मेरी आवाज़ काफी सुरीली थी. बिल्कुल लता जी की आवाज से मिलती जुलती. एक दिन मैं अपने बेडरूम में अधलेटी सी विद्यापति जी का गीत पूरे लय के साथ गा रही थी -
"कुंज भवन सएं निकसलि रे,
रोकल गिरधारी.
एकहि नगर बसु माधव हे, जनि करु बटमारी.
छोड़ कान्ह मोर आंचल रे, फाटत नब सारी.
अपजस होयत जगत भरी हे, जानि करिअ उघारी.
संगक सखि अगुआइल रे, हम एकसरि नारी.
दामिनी आय तुलायति हे, एक राति अन्हारी.
नहि विद्यापति गालों रे
सुनु गुनमति नारी.
हरिक संग कछु नाहि हे, तोंहे परम गमारी"
"वाह....! वाह.....!! इतनी अच्छी आवाज और मैं कोयल जैसी इस आवाज से अबतक अनजान था.?" इस वाहवाही को सुनकर मैं तो बेतहाशा चौंक पड़ी. यह आवाज किशन राज जी यानि मेरे पतिदेव की थी. न जाने कब से वे द्वार पर खड़े मेरे इस गीत को पूरी तन्मयता से सुन रहे थे. उन्हें देखकर मैं शर्म से छुई-मुई हो गयी.
"माया, तुम्हारे अंदर तो उच्च कोटि की प्रतिभा छुपी हुई है." पलंग के करीब आकर वे मेरी ठुढ़ी उठाते हुए बोले. अपनी प्रशंसा सुनकर मैं अंदर ही अंदर आह्लाद से भर उठी और मेरी पलकें बंद हो गयी. मेरे करीब बैठकर कुछ पल वे मुझे मुग्धभाव से निहारते रहे, फिर शिकायती लहजे में बोले -"तुमने अपनी इस अद्भुत प्रतिभा को मुझसे छुपाकर क्यों रखा? देखो माया, कोई भी कलाकार यदि अपनी कला को छुपाकर रखता है तो वह न सिर्फ कला का बल्कि कला की अधिष्ठात्री देवी मां शारदे का भी अपमान करता है साथ ही कुंठा का शिकार भी हो जाता है." उनकी इतनी ऊंची ऊंची बातें मेरी समझ से बाहर की थी. -
"मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि आप क्या कह रहे हैं?" मैं बाबली सी होती हुई बोली.
"तुम एक सफल गायिका बन सकती हो, यदि परिश्रम करो तो.!"
"क्या.....?" मैं पलंग पर से उछल पड़ी. उस समय मुझे नहीं पता था कि मेरे साथ कुछ ग़लत होने जा रहा है.
"हां माया, तुम्हारी आवाज़ में इतनी मिठास है कि तुम यदि चाहो तो बड़ी बड़ी गायिकाओं को पीछे छोड़ सकती हो. वैसे तुमने यह गायन विधा सीखा कहां से?"
"अपनी भाभी से."
"अच्छा, क्या तुम मुझे विद्यापति जी का कोई भजन सुना सकती हो?"
"हां सुना सकती हूं. मिथिलांचल में प्रसिद्ध विद्यापति जी का एक भजन हमारे यहां कि युवतियां बड़े भक्ति भाव से गाती हैं. सुनिए सुनाती हूं." मैं पलंग पर संभल कर बैठ गयी और पूरे राग के साथ गाने लगी -
"जय जय भैरवि असुर भयाउनि,
पशुपति भामिनी माया.
सहज सुमति वर दियउ
गोसाउनि, अनुगति गति तुअ पाया.
वासन रैन सबासनि शोभित, चरण चन्द्र मणि चूड़ा.
कतओ दैत्य मारि मुख मेलल, कतओ उगिलि कएल कूड़ा.
सामर बरन नयन अनुरंजित
जलद जोग फुल कोका
कट-कट विकट ओंठ- पुट पांडरि
लिधुर फेन उठ ठोंका.
घन घन घनय घुंघरू कत बाजय
हन-हन कर तुअ काता.
विद्यापति तुअ पद सेवक
पुत्र बिसारू जनु माता.
जय जय भैरवि असुर भयाउनि
पशुपति भामिनी माया.....!"
जैसे ही यह भजन समाप्त हुआ कि वे प्रसन्नता से झूम उठे. -
"माया, क्या तुम फिल्मी गीत भी जानती हो?"
"न..... नहीं." बड़ी मासूमियत से मैंने इंकार में अपनी गर्दन हिला दी.
"यदि फिल्मी गीतें सुन लो तो क्या उसकी नकल कर सकती हो.?"
"कोशिश कर सकती हूं." मैं समझ नहीं पायी थी कि आखिर वे मुझे बनाना क्या चाह रहे हैं. अब तो मैं उनकी दासी थी, जो कहेंगे वह सब तो करना ही होगा.
"तो ठीक है, कल्ह ही यहां एक डेक और एक टेप रिकॉर्डर आ जाएगा, उससे तुम्हारा मन भी बहल जाएगा और तुम फिल्मी गीत गाना भी सीख जाओगी." मन ही मन मैं सोचने लगी क्या इन्हें प्रसन्न रखने के लिए मुझे फिल्मी गीत भी गाना होगा.? मेरे मन ने कहा -"ये अब मेरे देवता हैं, इनकी खुशी के लिए मैं कुछ भी करूंगी."
दूसरे दिन ही एक काफी कीमती टू इन वन (रेडियो के साथ टेप रिकॉर्डर) तथा डेक आ गया. साथ में पुराने फिल्मों के कैसेट भी थे. उन सामानों को देखकर मैं आह्लाद से भर उठी. जो आदमी वह सब कुछ लेकर आया था, उसने ही मुझे तथा शैव्या को चलाने का तरीका सिखा दिया. फिल्मी गीतों में मुझे नूरजहां, शमशाद बेगम और लता जी के गीत सबसे प्रिय थे. अब मेरा तथा शैव्या का दोपहर के बाद एक ही काम रह गया - पुरानी फिल्मों के गीतें सुनना. गीतों को सुनते सुनते कुछ ही दिनों में मैं स्वयं भी लता जी के अपने पसंदीदा गीत गाने लगी. मेरी गायन प्रतिभा को देखकर शैव्या. प्रसन्नता से झूम उठी. एक दिन तो मैं गाते गाते नाचने भी लगी. तब शैव्या हर्ष से ताली पीटती हुई बोल पड़ी -"माया, तुम तो नृत्य भी बहुत अच्छा कर सकती हो."
"ना बाबा ना, मुझे नाचना उचना नहीं है." मैं लजाकर उसकी गोद में मुंह छुपा ली. तीन- चार दिनों तक किशन राज जी का कुछ भी अता-पता न चला. मैं व्याकुल हो गयी. वैसे बेड रूम में फोन था, मगर मुझे उनके ऑफिस का नंबर मालूम नहीं था. मालूम रहता भी तो मैं उन्हें फोन नहीं कर सकती थी. क्योंकि उन्होंने मुझे सख्त हिदायत दे रखी थी कि किसी भी परिस्थिति में मेरे ऑफिस में फोन मत करना. अब मेरे मन में तरह तरह की आशंकाएं उमड़ने-घुमड़ने लगी. मेरे हृदय की वेदना शैव्या से छुपी न रह सकी. वह मुझे समझाती हुई बोली -
"वे बड़े लोग हैं माया, कब आएंगे और कब चले जाएंगे इसका कोई ठिकाना नहीं रहता." शैव्या ने भले ही मुझे तसल्ली दे दी, मगर मेरी बेचैनी दूर न हुई. चौथे दिन वे आये. बड़े खुश नजर आ रहे थे. उनकी खुशी देखते ही मेरी मायूसी दूर हो गयी. आते के साथ ही उन्होंने मुझसे प्रश्न किया -
"कहो, तुम्हारी क्या प्रगति है.?"
"प्रगति....?" मैं अचकचाती हुई उनकी ओर देखने लगी.
"अरे भाई, फि़ल्मी गीतों का तुमने रियाज किया या नहीं?"
"हां, कुछ कुछ कोशिश तो की है मैंने."
"तो कोई गीत सुनाओ."
"लगता है आप मुझे गायिका बनाकर ही दम लेंगे." मैं थोड़ा इठलाती हुई बोली.
"तुम तो अभी से ही गायिकाओं वाली नखरे दिखा रही हो." वे मेरी अदा पर हंस पड़े.
"नखरे नहीं है हुजूर एक कलाकार की अदा है, लीजिए गीत सुनिए." फिर मैं तन्मयता से गाने लगी -
"हम जब से सिमट के आपकी बांहों में आ गये
लाखों हसीन ख्वाब निगाहों में आ गये,
हम जब से सिमट के आपकी बांहों में आ गये.......!"
"वाह ! वाह !! तुमने तो कमाल ही कर दिया." वे खुशी से झूम उठे. -"अब मुझे विश्वास हो गया कि तुम सिर्फ एक अच्छी गायिका ही नहीं, बल्कि कुशल नृत्यांगना भी बन सकती हो. मैं चाहता हूं कि तुम नृत्य गीत और संगीत का विधिवत प्रशिक्षण लो. कल्ह ही मैं इसकी व्यवस्था करवा देता हूं. हां एक बात और चूंकि फिल्मी गीतों में उर्दू और फारसी के शब्द बहुत होते हैं, जिसका उच्चारण हिन्दी भाषी सही ढ़ंग से नहीं कर पाते. इसलिए मैं एक उर्दू और फारसी सिखाने वाले उस्ताद को भी भेज दूंगा." मैं आवाक थी, यह सब क्या हो रहा है? आखिर किशन राज मुझे बनाना क्या चाहते हैं.? मगर इन सवालों का जवाब मैं मांगती तो किससे? उनसे पूछने का मतलब उन्हें नाराज करना था. और तीसरी बार मुझे जो खुशी मिली थी, उसे खोना नहीं चाहती थी.
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क्रमशः.........!
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