धारावाहिक उपन्यास 


-रामबाबू नीरव 

चाय पीने के बाद सचमुच सेठ धनराज जी ने अपने आप में एक अद्भुत ताजगी का अनुभव किया. अनुपमा ने इतनी अच्छी चाय बनाई थी कि वे मन‌ ही मन उसकी प्रशंसा किये बिना न रह सके. चूंकि वहां का माहौल इतना गमगीन था कि वे खुलकर उसकी तारीफ नहीं कर पाए. उन्होंने अपनी ऑंखों के इशारा से अनुपमा को डायरी पढ़ने की आज्ञा दी. आज्ञा पाकर अनुपमा अपनी सधी हुई आवाज में हुस्नबानो की आत्मकथा सुनाने ‌लगी-

"जब मैं अपना घर छोड़कर, स्कूल के पीछे पहुंची, उस समय रात्रि के तीन बज रहे थे. माघ का महीना था, कड़ाके की ठंड पड़ रही थी, मगर मुझे इसकी परवाह न थी. पता नहीं, मुझमें इतनी हिम्मत कहां से आ गयी कि मैं लोक-लाज का भय त्याग कर, अपने पिता समान बड़े भैय्या, देवी जैसी बड़ी भाभी और अपने जिगर के टुकड़े रीतेश से सारे नाते-रिश्ते तोड़कर अरविन्द जैसे इंकलाबी युवक के बहकावे में आ गयी. रात अंधेरी थी और सूनसान जगह. ऐसे में यदि मेरे साथ कोई अनहोनी हो जाती तो यहां मेरी रक्षा करने वाला भी कोई न था. कुत्तें भौंक रहे थे और सियार रो रहे थे. रह रह कर मेरा कलेजा डोल जाता. हिम्मत जुटा कर मैं यहां आ तो गयी, मगर भय के मारे मेरी हालत खराब होने लगी. अभी तक अरविन्द आया न था, मगर मैं उसके आने के प्रति पूर्णतः आश्वस्त थी. लगभग दो मिनट की विकल प्रतीक्षा के बाद ही मुझे टार्च की हल्की सी रौशनी दिखाई दी. निश्चित रूप से वह अरविन्द ही होगा. मेरे दिल को थोड़ी राहत मिली. जैसे जैसे वह निकट आता जा रहा था, मेरे दिल की धड़कन बढ़ती जा रही थी और मुझ पर एक अजीब सा उन्माद छाता था रहा था. मेरे करीब आकर झपटकर उसने मेरी कलाई थाम ली और फुसफुसाते हुए बोला -

"माया, मेरे साथ तेजी से भागो. सुबह की पहली किरण के निकलने से पहले हमें मधुबनी स्टेशन पर पहुंच जाना है." मैं कुछ न बोली चुपचाप उसके साथ दौड़ने लगी. दौड़ते दौड़ते मेरी सांस फूल गयी, फिर भी मेरे कदम न रूके. अरविन्द मेरा हौसला बढ़ाता जा रहा था. जब मैं गिर पड़ती तब वह मेरी बांहें थाम कर उठा देता. लगातार दो घंटे तक दौड़ते रहने के पश्चात, उषा की लालिमा निकलने से पहले ही हमलोग मधुबनी स्टेशन पर पहुंच गये. मधुबनी स्टेशन पर एकदम से सन्नाटा पसरा हुआ था. वहां नाम मात्र को ही यात्री थे. स्टेशन पर पहुंचने के बाद ही प्रथम बार अरविन्द ने टार्च की रौशनी में मुझे गौर से देखा. मैं विधवा का लिबास त्याग कर कुंवारी कन्या बन चुकी थी. भाभी की चटकदार साड़ी और हरे रंग की चुड़ियों में मेरा सौंदर्य काफी निखर गया था. ललाट पर बिंदी थी और आंखों में काजल. सिर्फ मेरी मांग में सिन्दूर न था, बाकी सारे शृंगार मैंने किसी नयी नवेली दुल्हन की तरह ही की थी. मेरी सूरत देखकर अरविन्द की ऑंखें चौंधिया गई. कुछ पल अपलक वह मुझे निहारता रहा. मैंने मद्धिम स्वर में उसे टोका -"जल्दी से कहीं एकान्त में चलो अरविन्द, कोई हमें देख लेगा.?" मेरी आवाज़ सुनकर उसकी चेतना लौटी आयी और वह वेटिंग रूम की ओर मुड़ गया. मैं हल्का सा घूंघट निकाल कर उसके पीछे-पीछे चल पड़ी. वेटिंग रूम में आने के बाद भी मेरी बेचैनी दूर न हुई. मुझे भय था कि कहीं मेरे छोटे भैय्या हमलोगों को देख न लें. वे मधुबनी में ही रहते थे. हालांकि इस बात की आशंका बहुत कम थी, फिर भी भय तो भय ही होता है न.? इस कारण मैं पूरी तरह सचेत थी. यह संयोग ही था कि शीघ्र ही झंझारपुर से दरभंगा जानेवाली गाड़ी आ गयी. ठंड के कारण भीड़-भाड़ नहीं थी इसलिए हमें अधिक परेशानी नहीं हुई. ठीक सुबह के सात बजे ही हमलोग दरभंगा पहुंच गये. अरविन्द मुझे एक रिक्शा पर बैठाकर दरभंगा टावर पर ले आया. यहां हमलोग एक होटल में ठहरे. कुछ देर आराम करने के पश्चात हमलोग फ्रेस हो गये. 

"माया.... मैं तुम्हारे साथ आज ही विवाह करूंगा, क्या तुम्हें स्वीकार है?"

"मैं खुद को तुम्हारे हवाले कर चुकी हूं अरविन्द, अब तुम्हें जो उचित लगे सो करो."

"लेकिन विवाह करने से पूर्व तुम यह तो जान लो कि मैं करता क्या हूं!"

"तुम यदि मजदूरी भी कर रहे होगे, तब भी मुझे स्वीकार है." मैंने स्पष्ट शब्दों में कहा.

"नहीं पगली, मैं मजदूर नहीं, बल्कि दिल्ली की एक कंस्ट्रक्शन कंपनी ने में इंजीनियर हूं."

"यह मेरा परम सौभाग्य है, अरविन्द कि मेरा होने वाला पति इंजीनियर हैं."

"तो ठीक है, दरभंगा राज पैलेस में स्थित भगवती मंदिर में हमलोग विवाह करेंगे. तुम कुछ देर यहीं आराम करो मैं तुम्हारे ‌लिए विवाह का जोड़ा लेकर आता हूं." वह होटल से बाहर चला गया और मैं सुन्दर सलोने स्वप्नलोक में विचरने लगी.

लगभग एक घंटा बाद वह मेरे लिए बनारसी साड़ी, मांग टीका तथा मंगलसूत्र और खुद के लिए शेरवानी लेकर आ गया. मैं सुहाग के प्रतिक मंंगलसूत्र और और मांग-टीका देखकर प्रसन्नता से झूम उठी. दूसरी बार मैं सुहागन बनने जा रही थी.

"माया, तुम बाथरूम में जाकर शादी का यह जोड़ा पहन लो, तब तक मैं भी दुल्हा बन जाता हूं." अरविन्द ने परिहास पूर्ण स्वर में कहा. उसके इस परिहास पर महीनों बाद मेरे अधरों पर मृदुल मुस्कान थिरकने लगी.

कुछ ही देर बाद ही हम-दोनों दुल्हन-दुल्हा के रूप में राज मंदिर की ओर प्रस्थान कर गये. राजमंदिर के पुजारी शायद अरविन्द के परिचित थे, उन्होंने पूरे विधि-विधान के साथ हमारी शादी करवाई. मैं दूसरी बार सुहागन बनी थी. वहां हमारा अपना तो कोई था नहीं, हम-दोनों ने पुजारी जी को ही अपना गार्जियन समझकर उनसे आशीर्वाद लिया. पुजारी जी से आशीर्वाद लेकर जब हम दोनों मंदिर के प्रांगण में आये, तब अरविन्द मेरा हाथ थामते हुए भाव-विह्वल स्वर में बोला -

"माया, अब तुम मेरी पत्नी हो.!" 

"अरविन्द.....!" मैं उससे लिपट गई -"तुमने मुझ जैसी अभागिन पर बहुत भारी उपकार किया है." मेरी ऑंखों से ऑंसू बहने लगे.

"यह क्या पगली, तुम रोती क्यों हो?" वह मेरे ऑंसू पोंछते हुए बोला -"अब तो तुम्हें खुश होना चाहिए." उसकी प्रेम भरी बातें सुनकर मैं आह्लादित हो उठी और उसके चरणों में झुक गयी. 

"यह क्या कर रही हो, तुम्हारा स्थान मेरे चरणों में नहीं, बल्कि दिल में है." इस बार उसने मुझे अपनी बांहों में जकड़ लिया. उसका असीम प्यार पाकर मैं निहाल हो गयी. मुझे एहसास हुआ कि अब मेरा जीवन सार्थक हो गया है. जानकी भाभी और सुनंदा का यह उपकार मैं आजीवन न भूलूंगी.

"माया, तुम तो मेरे परिवार के बारे में अब तक कुछ भी न जानती होगी.?" रिक्शा पर बैठने के बाद अरविन्द ने पूछा.

"जानने की जरूरत मैं नहीं समझती, तुम मेरे पति हो, मुझे जिस हाल में भी रखोगे रह लूंगी." मैं हॅंसती हुई मुग्ध भाव से उसकी ओर देखती हुई बोली. इन तीन वर्षों में प्रथम बार मेरे चेहरे पर ऐसी प्रसन्नता उभरी थी. मैं स्वयं आश्चर्यचकित थी, क्षणभर में ही मुझ में ऐसा परिवर्तन कैसे हो गया. ?

"तुम मेरी पत्नी बन चुकी हो, इसलिए तुम्हें मेरे परिवार के बारे में जानने की सिर्फ जरुर ही नहीं बल्कि यह तुम्हारा हक भी है. हमारा पुश्तैनी घर बाबू बरही गांव में है, हम अपने माता-पिता की तीन संतानें हैं. मेरी बड़ी दीदी यानी जानकी दीदी को तो तुम जानती ही हो, उनसे छोटे मेरे बड़े भैय्या हैं, जो गांव में ही रहकर खेती-बाड़ी का काम करते हैं. उनकी शादी हो चुकी है और उन्हें एक लड़का और एक लड़की भी है. हमारी मां का स्वभाव थोड़ा उग्र है, इसलिए उनकी मेरी भाभी से नहीं पटती. पिताजी भी लगभग उनकी ही स्वभाव के हैं. इसलिए वे दोनों मेरे साथ ही दिल्ली में रहते हैं." अरविन्द के माता-पिता के उग्र स्वभाव के बारे में जानकर मैं थोड़ी देर के लिए असहज हो गयी. यदि मेरे श्वसुर जी और सासु मां ने मुझे बहू के रूप में स्वीकार नहीं किया तब क्या होगा.? एकबार फिर जीवन रुपी मेरी नैया बीच भंवर में आकर डगमगाने लगी. क्या इस जीवन में मुझे और भी कुछ भोगना बांकी है. मेरी खामोशी को देखकर मेरे दिल में उठे तूफान को अरविन्द भांप गया. वह मुझे सांत्वना देते हुए बोला - "तुम चिंता मत करो माया. सारी विघ्न-बाधाओं से लड़ने का साहस मुझ में हैं. मैंने समाज के बंधनों को तोड़कर तुमसे शादी की है. तुम्हें देखकर खुद देर के लिए पिताजी और मां को तकलीफ़ होगी और हो सकता है मेरी मां तुम्हारा स्वागत गालियों से भी करे, मगर तुम घबराना मत. उनकी बातों का जवाब मत देना, कुछ दिनों बाद ही वे लोग तुम्हें बहू के रूप में स्वीकार कर लेंगे." अरविन्द का आश्वासन पाकर मैं थोड़ी देर के लिए आश्वस्त तो हो गयी, मगर दिल को संभालना अभी भी मुश्किल हो रहा था. टावर चौंक पर ही एक रेस्टोरेंट में हमलोगों ने भोजन किया. उस रेस्टोरेंट में लोग हमें घूर-घूरकर देख रहे थे. मगर हमलोगों को इसकी परवाह न थी. हमलोग अब पति-पत्नी थे, इसलिए हमें जमाने का डर न था. भोजन करने के बाद हमलोग होटल में आ गये. 

"अरविन्द....अब हमलोग क्या करेंगे?" मैं उत्सुकता से उसकी ओर देखने लगी.

"आज शाम में ही हमलोग दिल्ली के लिए प्रस्थान कर जाएंगे." 

"क्या.....?" मेरे दिल को धक्का सा लगा और मैं भौंचक सी खड़ी एकटक उसे देखती रह गयी. मेरी इच्छा थी आज रात उसी होटल में रूककर सुहागरात मनाने की. मगर अरविन्द इस पक्ष में नहीं था. वह किसी भी तरह का रिक्स लेनना नहीं चाहता था. विवश होकर मुझे उसकी बात माननी पड़ी और हमलोग शाम को ही दिल्ली के लिए प्रस्थान कर गये.

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क्रमशः.........!

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