"धारावाहिक उपन्यास"


-रामबाबू नीरव 

मैं उस समय लता जी के गीत सुन रही थी.   तभी मेरे कानों में जग्गू की आवाज पड़ी- "दीदी , आप से मिलने कुछ लोग आए हैं." 

"मुझसे मिलने....?" मैं  हैरान नजरों से जग्गू की ओर देखने लगी. मेरी समझ में नहीं आया कि यहां मुझसे मिलने के लिए कौन आ सकता है? 

"कौन लोग हैं.?" 

"नाम तो नहीं बताया उन लोगों ने, मगर उन लोगों के हाथों में ढ़ोल, हारमोनियम, सितार और तबला है."

"ओह....तो वे लोग हैं." मुझे अपने पति की बातें याद आ गयी. वे लोग संगीत और नृत्य शिक्षक हैं, जो मुझे नृत्य, गीत और संगीत की शिक्षा देने आए हैं. मैं जग्गू को हुक्म देती हुई बोली -"उनलोगों को सम्मान के साथ हॉल में बैठाओ मैं तुरंत नीचे आ रही हूं."

"जो हुकुम दीदी." जग्गू तीर की तरह सनसनाते हुए बाहर की ओर भाग गया. कुछ देर बाद अपने कपड़े दुरुस्त करके मैं भी बाहर की ओर दौड़ पड़ी. मन में उत्कंठा थी, जरा देखूं मुझे नृत्यांगना बनाने जो‌ लोग आए हैं वे कैसे हैं. कॉरिडोर की सीढ़ियां उतर कर मैं जैसे ही हॉल में आयी, वे सभी उठकर खड़े हो गये. वे कुल सात लोग थे. उन में से एक प्रौढ़ महिला भी थी. भले ही वह प्रौढ़ थी, परंतु उसका सौंदर्य तथा शारीरिक गठन किसी युवती से कम न था. उनमें से एक काफी सौम्य से दिखने वाले भद्र पुरुष ने स्वयं अपना परिचय देते हुए स्नेहसिक्त स्वर में कहा -"बेटी, मेरा नाम दिगम्बर महाराज है, ये मेरी सहायिका अहिल्या बाई है और ये हैं संगीताचार्य पं० अनिरुद्ध शास्त्री. बांकी लोग भी संगीत के आचार्य हैं. सेठ जी ने हमलोगों को आपको नृत्य, गीत और संगीत की शिक्षा देने के लिए भेजा है." मैं उनकी शालिनता और प्रभावशाली व्यक्तित्व को देखकर अभिभूत हो गयी. बारी बारी से उनलोगों का चरण स्पर्श कर आशीर्वाद लेने के पश्चात मृदुल स्वर में दिगम्बर महाराज से बोली - "गुरुजी, आपलोग बैठिए, तब-तक मैं नाश्ता का प्रबंध करती हूं."

"नहीं नहीं, इस औपचारिकता की कोई आवश्यकता नहीं है." दिगम्बर महाराज मुझे रोकते हुए तपाक से बोल पड़े.

"यह औपचारिकता नहीं है गुरुजी बल्कि एक शिष्या का अपने गुरुजनों के प्रति श्रद्धा- भाव हैं." मेरी विनम्रता देखकर वे सभी आह्लाद से भर उठे. इतने बड़े उद्योगपति की पत्नी ऐसी सहज और विनम्र स्वभाव की होगी, संभवतः उनलोगों को ऐसी आशा न थी. मेरा मान रखने के लिए उन लोगों ने मुझे रोकना उचित न समझा. उसी समय शैव्या वहां आ गयी. वैश्या की ओर देखती हुई मैं बोली -" दीदी इन लोगों के लिए नाश्ता का प्रबंध करो."

"ठीक है." शैव्या किचन की ओर चली गयी और मैं सोफा पर बैठकर दिगम्बर महाराज जी से  नृत्य की बारिकियां समझने लगी. लगभग आधा घंटा तक वे मुझे नृत्य का तकनीकी ज्ञान देते रहे. निश्चित रूप से दिगम्बर महाराज उच्च कोटि के नृत्य साधक थे. उस दिन औपचारिक शिक्षा के अतिरिक्त अन्य कोई शिक्षा मैं नहीं ले पायी. उनलोगों को चाय-नाश्ता करा कर विदा कर दिया गया. उसी दिन गुरु जी के कहने पर मां शारदे और नटराज की भव्य प्रतिमाएं मंगवा ली गयी. हवेली के ऊपर भी एक बहुत बड़ा हॉल था. उन प्रतिमाओं को उसी हॉल में स्थापित कर एक नृत्यशाला का रूप दे दिया गया. यह सब कुछ पर्दे के भीतर रहकर किशन राज जी ही करवा रहे थे. कल्ह होकर ही मेरी नृत्य गीत और संगीत की विधिवत शिक्षा आरंभ हो गयी. चार दिनों बाद ही मुझे ‌उर्दू और फारसी की शिक्षा देने ‌वाले एक मौलाना भी आ गये. वे भी  उनलोगों जैसे ही नेकदिल इंसान थे. मुझ में प्रतिभा के साथ साथ एक जुनून भी था. जिसे देखकर मेरे गुरुजी से लेकर उस्ताद तक चकित थे. लगभग दो वर्षों तक मेरी यह कठिन साधना चली. अब मैं न सिर्फ एक सफल गायिका बल्कि सिद्धहस्त नृत्यांगना भी बन चुकी थी. मेरे मन में न जाने क्या आया कि एक दिन मैंने एकांत पाकर दिगम्बर महाराज, अनिरुद्ध शास्त्री और अहिल्या बाई को अपनी पूरी कहानी सुना दी. मेरी कहानी सुनकर वे‌ तीनों स्तब्ध रह गये. मेरे साथ साथ अहिल्या बाई भी  फूट फूट कर रोने लगी. दिगम्बर महाराज ने हम दोनों को चुप कराया. 

"गुरु जी मैं नहीं जानती कि इस तरह से मुझे नर्तकी और गायिका बनाने के पीछे मेरे पतिदेव की मंशा आखिर है क्या.?" अपने ऑंसू पोंछती हुई मैं बोली. 

"वे बड़े लोग हैं बेटी, बड़े लोगों के शौक भी अजीब अजीब तरह के होते हैं, हो सकता वे‌ अकेले में ही तुम्हारी कला को देखते हुए आनंद की अनुभूति प्राप्त करना चाहते हों. इतने बड़े आदमी किसी कोठे पर तो जा नहीं सकते और न ही अपनी कोठी पर किसी तवायफ को बुला सकते हैं.!" दिगम्बर महाराज ने मेरे माथे पर स्नेह से हाथ फेरते हुए कहा.

"इसका मतलब वे‌ मुझे एक तवायफ के रूप में देखना चाहते हैं." मैं एक बार फिर गमगीन हो गयी.

"मैं पहले ही कह चुका हूं, बड़े लोगों के मन-मिजाज को समझ पाना बहुत ही मुश्किल होता है. वैसे तुम इस सत्य को जान लो कि संसार की कोई भी विधा अथवा हुनर व्यर्थ नहीं जाता.भविष्य में तुम्हारी यह अप्रतिम कला निश्चित रूप से तुम्हारा संबल बनेगी. मैं भविष्य वक्ता तो‌ नहीं हूं, मगर इतना तो जानता ही हूं कि सत्य यही है." गुरु जी की बातों से मुझे तसल्ली मिली. मगर मुझे ऐसा भी आभास होने लगा था कि आनेवाले दिनों में मुझ पर फिर से विपत्ति का पहाड़ टूट कर गिरने वाला है. 

एक दिन मेरे पति देव ने मेरी परीक्षा लेने की गरज से कोठी में ही ‌नृत्य, गीत और संगीत प्रतियोगिता आयोजित करवाया. इस प्रतियोगिता में मेरे नृत्य गुरु दिगम्बर महाराज की ही कुछ अन्य शिष्याओं को प्रतिभागी के रूप चुना गया. मुख्य अतिथि सह निर्णायक स्वयं किशन राज यानी मेरे पति देव ही थे. दर्शकों में शैव्या, उसके पति तथा जग्गू के साथ साथ कोठी के अन्य नौकर और नौकरानियां थी. जिस दिन प्रतियोगिता आरंभ हुई उस दिन शैव्या तो इतनी उत्साहित थी कि वह सबसे आगे बैठ गयी. प्रतियोगिता आरंभ हुई. सर्वप्रथम गायन प्रतिभा की परीक्षा ली गयी, जिसमें मैं प्रथम आयी. फिर नृत्य प्रतियोगिता में भी मैंने ही बाज़ी मारी. इसमें  कोई शक नहीं कि अन्य नृत्यांगनाएं भी कुशल नर्तकी थी, परंतु गुरु जी और अहिल्या बाई ने मुझे नृत्य के कुछ ऐसे टिप्स सिखाए थे, जो अन्य नर्तकियों को पता न था. नृत्य की विभिन्न शैलियों में एक शैली है चोला नृत्य का. इस शैली  में सभी नर्तकियां निष्णात नहीं हो पाती, क्योंकि यह शैली अत्यंत ही कठिन है. इसमें निरंतर अभ्यास के साथ साथ मन की एकाग्रता की आवश्यकता पड़ती है. गुरु जी और गुरु माता अहिल्या बाई की कृपा से मैंने इस कठिन नृत्य शैली में महारत हासिल किया. नृत्य की इस अद्भुत शैली में सम्पूर्ण शरीर स्थिर रहता है, सिर्फ दोनों पांव, ऊपर की ओर उठे हुए दोनों हाथ तथा नाभि के साथ साथ दोनों पयोधर ही संगीत के ताल पर नृत्य करते हैं. मेरे गुरुदेव ने बताया था कि प्राचीन काल में सोमनाथ मंदिर की सुप्रसिद्ध देवदासी चोला इस नृत्य शैली में पारंगत थी. इस प्रतियोगिता में मैंने इसी नृत्य का प्रदर्शन करने के पश्चात विजयश्री प्राप्त की. मेरी प्रतिभा से खुश होकर किशन राज जी ने मुझे उपहार स्वरूप एक चन्द्रहार प्रदान किया. इसमें  कोई ‌शक नहीं था कि इस प्रतियोगिता में आयी हुई अन्य लड़कियां भी प्रतिभाशाली थी. 

वैसे तो मेरे पति देव ने उन लड़कियों को भी मनचाहा उपहार देकर उन्हें प्रसन्न कर दिया था, परंतु मैं इससे संतुष्ट न थी. मैंने अपना वह चन्द्रहार प्रतियोगिता में दूसरे स्थान पर आने वाली नर्तकी को दे दी. मेरी इस दिलेरी को देखकर उस नर्तकी की ऑंखों से ऑंसू छलछला पड़े और वह मुझसे  बेतहाशा लिपट गयी. मेरे गुरुदेव ने ताली पिटते हुए मुझे शाबसी दी. शैव्या तो इतनी खुश हुई कि मेरी तरह वह भी थिरकने लगी. मेरे पति देव भी मेरी उदारता की प्रशंसा करते हुए नहीं थके. सभी शिक्षकों तथा वादकों को भी ऐसे ‌ऐसे कीमती उपहार दिये गये कि सभी गद् गद् हो गये.

      उस रात मेरे पति देव अत्यधिक प्रसन्न थे.  मैंने उनके समक्ष पिताजी, उनकी धर्मपत्नी तथा पुत्र अभय से मिलने की इच्छा प्रकट की. मेरी इस इच्छा को उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया. मैं प्रसन्नता से झूम उठी. मैं नहीं जानती कि वे मुझे किस हैसियत से मुझे उनलोगों से मिलवाएंगे, मैं तो सिर्फ इतना जानती थी कि वे चाहे मुझे जिस हैसियत से भी मिलवाएं, उनलोगों से मिलने के बाद मैं अपने सदव्यवहार से उन सबों के दिल में बस जाऊंगी. मैं एक एक पल करके उस दिन का इंतजार करने लगी, जब वे मुझे अपने परिजनों से मिलवाने के लिए बसुंधरा पैलेस में ले जाएंगे.

लगभग एक माह बाद उन्होंने मुझे खुशखबरी सुनाते हुए कहा - "माया, आजके चौथे दिन अभय का जन्म दिन है."

"क्या.....?" खुशी के मारे मैं उछल पड़ी. 

"हां.....और यदि तुम पूर्णिमा और अभय से मिलना चाहती हो, तो तुम्हें थोड़ा कष्ट करना होगा."

"कष्ट, कैसा कष्ट ?" मैं चौंक पड़ी और साभिप्राय उनकी ओर देखने लगी. 

"इस खुशी के मौके पर वसुंधरा पैलेस में तुम्हें अपना कार्यक्रम प्रस्तुत करना होगा."

"बस, इतनी सी बात." मुस्कुराती हुई मैं बोली -"हमारे बेटे अभय के जन्मदिन पर मैं कुछ भी करूंगी." 

"ठीक है, 5 फरवरी को मैं दिगम्बर महाराज के साथ सभी साजिंदों तथा अन्य कलाकारों को यहां सुबह में ही बुलवा दूंगा. उनलोगों के साथ तुम प्रोग्राम का एक शेड्यूल तैयार कर लेना. इस बात का ख्याल रखना कि वह कार्यक्रम सिर्फ तुम्हारे लिए ही आयोजित किया जाएगा. इसलिए तुम खुद को हाइलाइट करने की कोशिश करना."

"जी, आप जैसा चाहेंगे मैं वैसा ही करूंगी."

"ओके, अब मैं चलता हूं." मुझे कुछ और हिदायतें देकर वे चले गये. उस रात खुशी के मारे मेरी ऑंखों की नींद उड़ गयी. और मैं पूर्णिमा दीदी, अपने श्वसुर जी तथा पुत्र अभय से मिलने की चिरसंचित अभिलाषा के पूर्ण होने की खुशी में सारी रात सो नहीं पायी. तरह तरह की परिकल्पनाएं मेरे दिलो-दिमाग में उभरने लगे "कैसे होंगे मेरे श्वसुर जी, पूर्णिमा दीदी से जब मैं पहली बार मिलूंगी तब क्या कहूंगी. अभय मुझसे मिलकर खुश होगा या नहीं. इस तरह के अनेकों सवाल मेरे जेहन में हलचल मचाने लगे थे. 

5 फरवरी को अहले सुबह गुरु जी तथा अहिल्या बाई के साथ सभी साजिंदे तथा कुछ अन्य नर्तकियां और गायक-गायिकाएं कोठी  पर आ धमके. शैव्या और जग्गू के साथ मिलकर मैंने उनलोगों की अच्छी आवभगत की. कलाकारों की उस टोली में मेरे गुरुदेव दिगम्बर महाराज के नृत्य विद्यालय की ही शिष्य एवं शिष्याएं थी. उनलोगों की भी हार्दिक इच्छा थी, सेठ किशन राज जी के इस भव्य कार्यक्रम में अपनी प्रस्तुति देने की. भला इससे सुन्दर सुअवसर उन्हें कब मिलता.? मेरे बहाने उन्हें देश की बड़ी बड़ी हस्तियों के समक्ष अपनी कला का प्रदर्शन करने का सुयोग मिला था. वे सभी मन ही मन खुशी से झूम रहे थे. कुछ देर रियाज करने के पश्चात हमलोगों ने किशन राज जी के कथनानुसार कार्यक्रम की एक रूप-रेखा तैयार कर ली. उस कार्यक्रम में प्रथम प्रस्तुति मेरी ही होनी थी. ठीक पांच बजे कोठी के पार्क में लगभग पांच शानदार गाड़ियां आकर रूकी. शैव्या और जग्गू ने भी मेरे इस प्रथम प्रोग्राम को देखने की इच्छा प्रकट की. उन दोनों की इच्छा का सम्मान करती हुई मैं उनके साथ उसी गाड़ी में बैठी जिस गाड़ी के नीचे आकर मैं मरने मरने से बची थी और परिणाम स्वरूप सेठ किशन राज जी की दूसरी पत्नी बनी. वसुंधरा पैलेस पंजाबी बाग में स्थित था. जब हमलोग वहां पहुंचे, तब वहां की भव्यता देखकर दंग रह गये. कोठी के बाहर एक विशाल मैदान था. इसी मैदान में किसी राजमहल की तरह का पंडाल बनवाया गया था. वहां की चकाचौंध रोशनी में हमारी ऑंखें चौंधियाने लगी. बाहर देशी और विदेशी गाड़ियों की लम्बी लम्बी कतारें लगी थी. वहां बड़े लोगों के सिर्फ बाड़ी गार्ड ही नजर आ रहे थे. यानी सारे मेहमान पंडाल के अंदर तशरीफ़ ले जा चुके थे. चूंकि इस पार्टी में देश की बड़ी बड़ी हस्तियां शिरकत कर रही थी, इसलिए यहां की सुरक्षा व्यवस्था भी चाक-चौबंद थी. ऐसी सुरक्षा व्यवस्था देखकर तो हमलोग घबरा ही गये. इतने बड़े बड़े लोगों के बीच भला हमारी विसात ही क्या थी, पता नहीं हमें पंडाल के अंदर घुसने भी दिया भी जाएगा या नहीं?. हमारी इस दुश्चिंता को ड्राइवरों ने भांप लिया और उन लोगों ने ही हमें पंडाल के अंदर पहुंचा दिया. वहां का माहौल देखकर मेरा सर चकरा कर रह गया. होटल के वेटर रंग-बिरंगे कपड़े पहने हुए मेहमानों को शराब और शीतल पेय पेश करते हुए नजर आए. मैं प्रथम बार बड़े बड़े लोगों को अपनी अपनी धर्मपत्नी के साथ शराब की चुस्की लेते और बिंदास अंदाज में अश्लील हरकतें करते हुए देख रही थी. यहां  जितनी भी महिलाएं थी सभी आधुनिकता के रंग में रंगी हुई. ये महिलाएं पाश्चात्य संस्कृति से उधार ली गयी अपसंस्कृति पर उठलाती हुई स्वयं को दूसरे से अधिक खुबसूरत दिखाने की चेष्टा में भौंडी नजर आ रही थी. और मैं  मन ही मन सोच रही थी -"क्या यही है भारतीय सभ्यता और संस्कृति, जिस पर हमारे आका लोग इतरा रहे हैं?"

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