"धारावाहिक उपन्यास"

-रामबाबू नीरव 

अपनी कोठी के शयनकक्ष में आकर मैं निढ़ाल सी बिछावन पर गिर पड़ी. मेरे दुर्भाग्य ने मुझे क्या से क्या बना दिया. मेरी ऑंखों से अविरल ऑंसू बहने लगे. मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि अब मैं क्या करूं? क्या यहां से भाग जाऊं? मगर भागकर जाऊंगी कहां.? यह तो सत्य तो प्रकट हो चुका था कि किशन राज जी मुझे एक तवायफ के रूप में ही देखना चाहते हैं. अपने मनोरंजन की वस्तु बना दिया उस निष्ठुर ने मुझे. मैंने तो सुना था कि पुराने जमाने में राजा- महाराजा, सामंत जमींदार, नबाब और सेठ साहूकार लोग मशहूर तवायफों को अपनी रखैल बनाकर रखा करते थे. मगर, किशन राज पहला वह शख्स होगा, जिसने अपनी दूसरी पत्नी को बड़ी चालाकी से एक तवायफ बना दिया. मैं  पुनः एक अंधेरी गुफा में धकेल दी गयी. मगर मेरी विवशता ऐसी थी कि लाख कोशिश के बावजूद भी मैं इस गुफा से बाहर नहीं निकल सकती थी. काफी सोच-विचार करने के पश्चात मैं इसी नतीजे पर पहुंची कि अब जिस हाल में गुजारना पड़े, मुझे अपनी बाकी की ज़िन्दगी किशन राज के साथ ही बितानी है. सुबह होते ही मैं उस ज़ख्म को भूल गयी जो किशन राज ने दिया था.   पूरी तरह से तरोताजा होकर मैं सभी के साथ हंस हंस कर बातें करने लगी. शैव्या और जग्गू भी मुझे खुश देखकर खुश हो गये. 

   तीसरे दिन मेरे पति कोठी में आये. उनका रूप देखकर ही मैं समझ गयी कि वे मुझसे अप्रसन्न हैं. मैं  उनकी नाराजगी को दरकिनार करती हुई हंसती हुई उनका स्वागत सत्कार करने लगी. वे मेरा ऐसा मनमोहक रूप देखकर चकित रह गए. इस खुशगवार मौके पर उस ज़ख्म को कुरेदना न तो उन्होंने जरूरी समझा और न ही मैंने. अचानक वे मेरे हाथ अपने हाथों में लेते हुए अत्यंत भावुक स्वर में बोल पड़े - "माया.....!"

"तनिक रुकिए जनाब." मैं तवायफों की तरह इठलाती हुई बोल पड़ी -"अब मैं माया नहीं हुस्नबानो हूं."

"नहीं, हुस्नबानो तो तुम सिर्फ स्टेज के लिए हो, इस कोठी में तुम सिर्फ मेरी माया रानी हो." 

"अच्छा....तो एक नारी को दो रूपों में देखना चाहते हैं आप." मेरी इन बातों में छुपे व्यंग्य भाव को वे समझ गये, मगर इस पर उन्होंने कोई टिप्पणी नहीं की. कुछ पल मौन रहने के पश्चात  बेहद खुशामदी स्वर में बोले -

"माया, आज मैं तुमसे कुछ और मांगना चाहता हूं."

"मुझसे आप मांगना चाहते हैं.?" मैं हैरान रह गयी. भला मेरे पास ऐसा क्या है, जो ये मुझसे मांग रहे हैं? मैं तो अपना सर्वस्व इन पर न्यौछावर कर चुकी हूं. 

"हां तुम से, तुम वादा करो, इंकार तो नहीं करोगी !" 

"मेरे पास जो भी है, वह सब आपका ही दिया हुआ तो है, फिर भी मांगिए आप क्या मांगना चाहते हैं?"

"देखो माया." वे संभल कर बैठते हुए अपने दिल की बात बयां करने लगे- "हर इंसान की कोई न कोई महत्वाकांक्षा होती है. जैसे तुम्हारी महत्वकांक्षा एक नर्तकी और गायिका बनने की थी, वह तो तुम बन गयी. मेरी महत्वकांक्षा केन्द्रीय मंत्री बनने की है. मगर इसके लिए सबसे पहले मुझे एमपी बनना होगा. मेरे इस राजनीतिक महत्वाकांक्षा को पूर्ण करने में तुम ही सहायक हो सकती हो. कहते हैं हर कामयाब पुरुष की कामयाबी में किसी महिला की भूमिका रहती है. मेरी कामयाबी की बागडोर भी तुम्हारे ही हाथों में है." 

"इसमें मैं क्या कर सकती हूं?" उनकी बातें सुनकर मैं एकदम से हैरान रह गयी.

"समय आने पर मैं बता दूंगा कि तुम्हें क्या करना है."

"यदि मैं आपके किसी काम आ सकी तो यह मेरी अहोभाग्य होगा." बिना कुछ सोचे समझे मैंने उन्हें वचन दे दिया. मेरा आश्वासन पाकर वे प्रसन्नता से झूम उठे. वह पूरी रात उन्होंने मेरे साथ ही गुजारी. हालांकि मैं बार बार उन्हें दीदी के पास जाने का आग्रह करती रही, मगर उन्होंने मेरी एक न सुनी. 

                  ******

    उस रात के बाद काफी दिनों तक उनका कोई अता-पता न रहा. मेरी चिंता बढ़ गई. बार बार मन उद्विग्न हो जाता, कहीं वे नाराज तो नहीं हो गये. अचानक एक दिन मुझे उल्टियां होने लगी. मैं सर से लेकर पांव तक कांप गयी. मेरी उल्टी और हिचकी की आवाज सुनकर वैश्या दौड़ती हुई मेरे करीब आ गयी. पहले तो वह मेरी हालत देखकर घबरा ही गयी, परंतु शीघ्र ही उसे मेरी असली हालत का एहसास हो गया और उसके चेहरे पर प्रसन्नता थिरकने लगी. उसे प्रसन्न होते देख मैं बुरी तरह से चौंक पड़ी. वह मेरी ठुढी उठाकर हंसती हुई बोल पड़ी -

"इस उल्टी का मतलब तुम कुछ समझी माया."

"न.... नहीं तो.....!" मैंने अपनी गर्दन हिलाते हुए कहा. मेरी मासूमियत पर वह और भी जोर जोर से हंसने लगी. 

"तुम मां बनने वाली हो.....!"

"क्या.....?"

"हां.....ये सारे लक्षण तुम्हारे मां बनने के ही हैं."

"नहीं.....!" मैं हल्के स्वर में चीख पड़ी -"हे भगवान यह क्या हो गया." मैं अपना सर थाम कर बिछावन पर बैठ गयी. शैव्या मेरे मन की व्यथा को भांप कर मेरे बाल सहलाती हुई बोली -

 "यह क्या माया, संतान पाने के लिए औरतें न जाने कितनी मन्नतें मांगती हैं और तुम हो कि आहें भर रही हो."

"दीदी मैंने भले अपने जीवन के दो महत्वपूर्ण वर्ष किशन राज जी के साथ बिताए हैं, परंतु अभी तक मैं उस आदमी को सही ढ़ंग से पहचान नहीं पायी हूं."

"तुमने कहा था कि देवघर में उन्होंने बाबा बैद्यनाथ को साक्षी मानकर तुमसे विवाह किया है."

"हां, यह सच है कि वे मेरे पति हैं... मगर दुनिया इस सच्चाई को स्वीकार करेगी तब न.? यदि किशन राज जी ने मेरे बच्चे को पिता का नाम न दिया, तब क्या होगा?" मेरी ऑंखों से ऑंसू बहने लगे. 

"इस बात को तो तुम भूल ही जाओ कि छोटे मालिक तुम्हारे बच्चे को अपना नाम देंगे." 

"तब फिर इस बच्चे को जन्म देने से क्या फायदा?" मेरे हृदय में एक तरफ करूणा का सागर उमड़ रहा था तो दूसरी और भयानक तूफान मचल रहा था. 

"इसका मतलब तुम गर्भपात करवाने जैसा महापाप करोगी.?" शैव्या तुनक पड़ी. 

"नहीं.... नहीं ऐसा पाप मैं नहीं करूंगी." मैं शीघ्र ही संभल गयी और अपने मन के उत्ताप को काबू में करती हुई दृढ़ स्वर में बोली -"अब चाहे जो हो जाए सेठ किशन राज के इस बच्चे को मैं जन्म दूंगी." अपने ऑंसू पोंछकर मैं खड़ी हो गयी. न जाने कहां से मुझ में एक अद्भुत शक्ति आ गयी, जिसे देखकर शैव्या दंग रह गयी. मैं मां बनने वाली हूं, इस सत्य को मेरे अलावा अभी सिर्फ शैव्या ही जान रही थी. अब अपने पति किशन राज जी को यह खुशखबरी सुनाने के लिए मैं बेचैन हो उठी. मगर अब तक वे लापता थे. उनकी प्रतीक्षा करते करते मेरी ऑंखें पथरा गई. मुझे अब अंदेशा होने लगा, क्या उनको आभास हो चुका है कि मैं मां बनने वाली हूं? मगर उन्हें बताएगा कौन....शैव्या तो इतनी छिछोरी नहीं है. अब यदि उन्हें मेरा मां बनना पसंद न हो और उन्होंने मुझे अपनी इस कोठी से निकाल दिया तब.....! तब की परिकल्पना से मेरा रोम रोम सिहर उठा. यह तो तय है कि उन्होंने अभी तक मुझे दिल से अपनी पत्नी स्वीकार नहीं किया है, यदि किया होता तो इस सच्चाई को अपने पिता जी और धर्मपत्नी से छुपाया न होता. तरह तरह की आशंकाओं ने मेरे मस्तिष्क को कुंद करके रख दिया. तभी न जाने मेरे मन में क्या आया कि मैं अपने आलमीरा की ओर बढ़ गयी और उसे खोलकर देखने लगी. उसमें सारे गहने और नगद रुपए सुरक्षित थे. हालांकि यह सब किशन राज जी का ही था, परंतु अब ये सब मेरी सम्पत्ति थी. मैंने अनुमान लगाया जेवर और नगद लेकर कुल दस लाख की मालकिन तो मैं थी ही. इतने में तो मैं अपनी संतान के साथ मजे में पांच छः वर्षों तक गुजारा कर सकती थी, मगर उसके बाद क्या होगा? मुझे मेरा भविष्य अंधकारमय नजर आने लगा. लगभग बीस दिन बीत गये. इस बीच न तो मेरे पति ही कोठी में आये और न ही उनका कोई संवाद ही आया. एक दिन फोन की घंटी टनटनाने लगी. कांपने हाथों से रिसीवर उठाकर मैं क्षीण स्वर में बोली -

"हेल्लो......!" 

"माया मैं किशन राज बोल रहा हूं. माफ करना....एम. पी. का टिकट पाने के चक्कर में मैं इतना उलझा रहा कि न तो तुम से मिल पाया और न ही तुम्हें फोन ही कर पाया."

उनकी बातें सुनकर मेरा रोम रोम पुलक उठा. मैं प्रसन्नता से झुमती हुई बोली -

"कोई बात नहीं, पहले आप अपना कैरियर देखिए."

"क्या बताऊं माया आजकल की राजनीति इतनी गन्दी हो चुकी है  कि तुम्हें बताते हुए मुझे शर्म आ रही है. मगर बताए बिना  रह भी नहीं सकता. मेरी तमन्ना है कि जिन्दगी में सिर्फ एकबार मंत्री बनूं. सत्ताधारी पार्टी के आलाकमान ने तो हरी झंडी दिखा दी है, मगर आलाकमान का एक मेंबर ऐसा है जो एक नम्बर का औरतखोर है.  और  मेरी मजबूरी यह है कि उसकी सिफारिश पर ही मुझे टिकट मिल पाएगा. अभय के जन्मदिन वाले कार्यक्रम में वह चंडूल भी था. अरे वही जिसने अपने गले का चैन तुम्हें उपहार  में दिया था. उस दिन से ही तुम उसके दिलो-दिमाग में छा चुकी हो. वह चाहता है कि तुम उसके साथ एक रात.........!" इसके आगे मैं कुछ सुन न पायी. मेरे हाथ से रिसीवर छूट गया और मैं लगभग चेतना शून्य सी हो गयी. यदि किसी ने मेरे सीने में खंजर घोंप दिया होता, तब भी मुझे इतनी तकलीफ़ न हुई होती जितनी कि किशन राज जैसे महाधूर्त और स्वार्थी इंसान, जो दुर्भाग्य से मेरा पति बन चुका था, के मुंह से ऐसी घटिया  बातें सुनकर हुई. संसार के इस सबसे घटिया इंसान ने मेरी मजबूरी का फायदा उठाकर पहले मुझसे विवाह करके अपनी पत्नी बनाया, फिर स्टेज पर नचवा कर तवायफ बना दिया और अब औरतों के जिस्म के भूखे किसी भेड़िया के सामने मुझे धकेल कर रंडी बनाने पर तुला है यह आदमी." मेरा सम्पूर्ण शरीर दहकने लगा और ऑंखों से ज्वाला निकलने लगी. उधर फोन के रिसीवर से उस घटिया इंसान के गिड़गिड़ाने की आवाज आ रही थी -"माया.... देखो तुम इंकार मत करना, मेरे भविष्य का सवाल है. तुम ही मेरी जिन्दगी संवार सकती हो. बस सिर्फ एक ही रात की बात है. तुम मेरी ज़िन्दगी संवार दो, उसके बाद मैं डंके की चोट पर तुम्हें अपनी पत्नी घोषित कर दूंगा. ये मेरा तुम से वादा है." वह फोन पर मुझ से भीख मांग रहा था. यदि वह इंसान मेरे सामने रहा होता तो मैं उसके मुंह पर थूक देती. और सचमुच मैंने रिसीवर की ओर मुंह करके थूक दिया -

"आ.....थू.....!" पता नहीं किशन राज ने मेरे थूकने की आवाज सुनी या नहीं. उस जालिम की दिल को छेद देने वाली बातों से क्षुब्ध होकर क्षण भर में ही मैंने एक ठोस निर्णय ले लिया -"इस जन्म मैं दुबारा पापी किशन राज का मुंह कभी न देखूंगी." मैं क्रोध से उफनती हुई उठ कर खड़ी हो गयी. मेरे मुंह से वेदनासिक्त चीख निकल पड़ी -"शैव्या..........!" मेरी चीख सुनकर घबराई हुई शैव्या मेरे कक्ष में आ गयी, उसके पीछे उसका भाई जग्गू भी था. 

"क्या हुआ माया.?" आते के साथ उसने पूछा. 

"मैं लूट गयी, बर्बाद हो गयी दीदी." शैव्या से लिपट कर मैं फफक फफक कर रोने लगी -" वो तुम्हारा छोटा मालिक तो अब मुझे रंडी बनाने पर तुला है." 

"क्या......?" हैरत से सिर्फ शैव्या ही नहीं, बल्कि जग्गू की ऑंखें भी फटने लगी. 

"हां दीदी, अभी अभी उस पापी का फोन आया था और मुझ से कह रहा था कि मैं किसी भ्रष्ट नेता के साथ एक रात गुजारुं, बदले में उसे एमपी का टिकट मिल जाएगा."

"नहीं..... हर्गिज नहीं....! तुम मर जाना मगर ऐसा पाप मत करना." मुझे लगा जैसे शैव्या मेरी मां के रूप में अवतरित हुई हो. उसका दृढ़ संकल्पित स्वर सुनकर मेरे दिल को राहत मिली. 

"दीदी अब मैं क्या करूं?" मैंने कंपित स्वर में पूछा.

"इस पाप की नगरी को त्याग दो और मेरे साथ मेरे गांव चलो. मैं कहां की रहनेवाली हूं, इस सच्चाई को तुम्हारे सिवा और कोई नहीं जानता. मैं दावे के साथ कहती हूं कि हमारी परछाईं को किशन राज का फरिश्ता भी पा सकता. मैं अपने पति के साथ वहीं मेहनत-मजदूरी करके तुम्हारे साथ साथ तुम्हारे बच्चे को पाल लूंगी. मगर पाप के दलदल में तुम्हें धंसने न दूंगी."

"सचमुच तुम देवी हो दीदी." मैं शैव्या के चरणों में गिर कर अपने ऑंसुओं से उसके चरण धोने लगी. 

"चलो उठो, देर मत करो." मेरी बांहें थाम कर मुझे उठाती हुई वह बोली. 

"मैं भी आप लोगों के साथ चलूंगा." तभी जग्गू ऑंसू बहाते हुए बोल पड़ा -"मेरा भी इस दुनिया में कोई नहीं है, दीदी मैं आपका साया बनकर आपके साथ रहूंगा." उसके ऑंसू देखकर मैं द्रवित हो गयी और स्नेह से उसके बाल सहलाती हुई बोली -

"ठीक है तुम भी चलो."

जग्गू प्रसन्नता से झूम उठा.

क्रमशः........!

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