"धारावाहिक उपन्यास"
- राम बाबू नीरव
इस धरती पर यदि किशन राज जैसे निकृष्ट प्राणी हैं तो शैव्या, उसके पति रामप्रीत और जग्गू जैसे उत्कृष्ट लोग भी हैं, जो दूसरों के दु:ख-दर्द पर अपना सर्वस्व न्यौछावर करने को सहर्ष तैयार हो जाया करते हैं. यदि मेरी सगी बहन रही होती तो शायद वह भी मुझ दुखिया के लिए इतना न करती जितना की शैव्या कर रही थी. उसका खपरैल का घर बिहार के वैशाली जिला स्थित एक ठेठ गांव में था. वह मुझे लेकर उसी गांव में आ गयी. शैव्या, उसका पति और जग्गू पेट पालने के लिए मजदूरी करने लगे. मैंने भी कहा "दीदी, मैं भी मजदूरी करूंगी.!" मगर उसने पूरे अधिकार के साथ मुझे डपते हुए कहा -"खबरदार, दुबारा जो ऐसी बातें अपनी जुबान पर लाई तो मैं तुम्हारी ज़ुबान काट लूंगी. जब तक तुम अपने बच्चे को जन्म नहीं दे देती, तब तक इस तरह की बकवास मत करना." अब इसके आगे मैं क्या बोलती.? लेकिन मुझे मेरा आत्म सम्मान धिक्कारने लगा कि मैं इन गरीबों पर बोझ बनती जा रही हूं. फिर मैंने एक निर्णय लिया और किसी तरह से शैव्या को इस बात के लिए राजी कर लिया कि बच्चे को जन्म देने में जो भी खर्च होगा वह खर्च मैं अपने संचित पैसे से करूंगी. शैव्या और रामप्रीत इसके लिए राजी हो गये. वैसे तो मैं खुद को पूर्णरूपेण स्वस्थ महसूस कर रही थी, मगर फिर भी शैव्या की जिद पर पटना के एक बड़े नर्सिंग होम में मेरा टेस्ट करवाया गया. मेरे उदर में पलने वाला शिशु बिल्कुल स्वस्थ था. मैं अपने बच्चे को लेकर सुन्दर सुन्दर सपने देखने लगी. मन ही मन मैंने ठान लिया मेरी संतान चाहे लड़का हो या लड़की उसे मेहनत मजदूरी करके भी डाक्टर बनाऊंगी. सबसे अधिक खुश जग्गू था. वह सबसे कहता फिरता कि मैं मामा बनूंगा. उसके इस निश्छल प्रेम को देखकर मैं इतना भावुक हो जाती कि मेरी ऑंखें छलछला पड़ती. वह अपनी कमाई हुई मजदूरी मेरे हाथों में लाकर रख देता. मैं उसे लाख मना करती मगर वह मानने वाला कहां था. जब मैं जोर-जबरदस्ती करती तब वह रोते हुए कहता -"दीदी मैंने आपको ही अपना सब कुछ मान लिया है, इसलिए मेरी कमाई क्या मेरी जिन्दगी पर भी आपका ही अधिकार है." मैं मजबूर हो जाती.
आखिरकार वह दिन आ ही गया जब मैं चांद जैसी एक गुड़िया की मां बन गयी. शैव्या, रामप्रीत और जग्गू की खुशी का तो जैसे कोई ठिकाना ही न रहा. जग्गू ने अपनी एक सप्ताह की कमाई बड़े जतन से जमा कर रखा था. उस पैसे से मिठाई लाकर वह पूरे मोहल्ले वालों को बांटते हुए कहने लगा "मैं मामा बन गया, मेरी भांजी परियों जैसी खुबसूरत है." उसकी इस खुशी ने मेरे दिल को आह्लाद से भर दिया.
*****
धीरे-धीरे छः महीने बीत गये. मैंने अपनी बेटी का नाम रखा अमृता राज. मैं यह देखकर हैरान थी कि मेरी बेटी का चेहरा- मोहरा ठीक किशन राज जी के बेटे अभय राज से मिल रह था. मिलता भी क्यों नहीं आखिर मेरी बेटी भी तो किशन राज जी की बेटी थी.
चूंकि मैं वैशाली (हाजीपुर) के एक गांव में रह रही थी और यहां से सोनपुर काफी करीब है, जहां एशिया महादेश का सुप्रसिद्ध हरिहर क्षेत्र पशु मेला कार्तिक पूर्णिमा से आरंभ होता है और एक माह तक चला करता है. इस मेले में तरह तरह के पशुओं की खरीद बिक्री होती है. यह विराट मेला गंगा और गंडक नदी के संगम तट पर लगता है, जो कि भगवान विष्णु द्वारा अपने भक्त गजेन्द्र (गज) की ग्राह (मगरमच्छ) के चंगुल से मुक्ति के उपलक्ष्य में एक त्यौहार की तरह मनाया जाता है. इस मेला में तरह तरह की दुकानों तथा खेल तमाशों का जमघट लगा रहता है. माना जाता है कि इस मेले की शुरुआत गुप्त राजवंश के प्रतापी राजा चन्द्रगुप्त द्वितीय ने की थी. ठीक कार्तिक पूर्णिमा के दिन ही हमारे गांव से झुंड की झुंड महिलाएं संगम स्नान करने के बहाने मेला का आनंद लेने जा रही थी. शैव्या और जग्गू मुझसे भी चलने की जिद करने लगे. उनकी जिद के समक्ष मुझे झुक जाना पड़ा और अपनी छ: माह की बेटी अमृता राज को लेकर मैं भी उन लोगों के साथ पांव पैदल ही उस मेला के लिए कूच कर गयी.
संगम स्नान और हरिहर नाथ मंदिर में भगवान के दर्शन करने के पश्चात हमलोग एक होटल में भोजन करने के लिए पहुंचे. भोजन करते समय अनायास ही मेरी नजर सड़क के उस पार लगे के एक बहुत बड़े होर्डिंग पर पड़ गयी, जिस पर मोटे-मोटे अक्षरों में लिखा था -"भारत का सुप्रसिद्ध नौटंकी कल्पना थियेटर." इस नाम को पढ़कर मेरे दिलो-दिमाग में हलचल सी मच गयी और गुरु जी की बात याद आ गयी -"बेटी कोई भी विधा निर्थक नहीं जाती. देखना कभी न कभी तुम्हारे इस नृत्य और गायन की यह कला मुसीबत के दिनों में तुम्हारे काम आएगी." फिर क्या था, पल भर में ही मैंने मन ही मन एक ठोस निर्णय ले लिया. "यदि इस थियेटर में मुझे नर्तकी के रूप नौकरी मिल जाती है तो मैं अपनी बेटी के साथ साथ अपनी बाकी की ज़िन्दगी भी आराम से गुजार लूंगी साथ ही अपनी कला के प्रदर्शन का सुअवसर भी मुझे मिल जाएगा." मन में ऐसा विचार आते ही मैं रोमांचित हो गयी. हमलोग होटल का बील चुका कर बाहर आ गये. उस समय तक मेरी नगद जमा पूंजी में से सिर्फ पांच हजार रुपए ही बच रहे थे. हां, जेबर जो भी थे वे सब मेरे संदूक में सुरक्षित थे. बाहर आकर मैं कुछ पल कल्पना थियेटर को अपलक निहारती रही. वहां आस पास कुछ अन्य थियेटर (नौटंकी) भी थे, लेकिन कल्पना थियेटर का विशाल पंडाल,और उसकी भव्यता बता रही थी कि यह थियेटर अन्य थियेटरों से बिल्कुल भिन्न और शालीन है. मैंने अमृता को शैव्या की गोद में देते हुए कहा -"दीदी मैं दस मिनट में आ रही हूं, तब-तक तुम लोग यहीं रुको." फिर मैं तेजी से कल्पना थियेटर की ओर बढ़ गयी. मुझे एहसास हुआ कि शैव्या अचकचाती हुई हैरानी से मुझे घूरने लगी है. चूंकि थियेटर का शो रात्रि में होता है इस लिए इस समय वहां पूर्णतः सन्नाटा पसरा हुआ था. यानी थियेटर के सारे कलाकारों से लेकर कर्मचारी और मालिक-मैनेजर तक इस समय सो रहे होंगे. मुख्य द्वार बंद था. द्वार पर पहुंचने पर मुझे घोर निराशा हुई. मेरी समझ में नहीं आया कि मैं अंदर जाऊं कैसे.? तभी मेरी नजर एक लड़के पर पड़ी, उसके हाथ में झाड़ू था. मैं समझ गयी यह लड़का सफाईकर्मी होगा. मैं जोर से उसे आवाज देती हुई बोली -"ऐ जरा जरा इधर तो आना." जब उसकी नजर मुझ पर पड़ी तब वह भौंचक रह गया. मैं लाखों में न सही, हजारों में एक तो थी ही. वह निश्चित रूप से मेरे अप्रतिम सौंदर्य को देखकर हैरान रह गया था. मेरे निकट आकर उसने बड़े ही सम्मान पूर्ण स्वर में पूछा -"जी कहिए मैडम."
"मैं इस थियेटर के मालिक से मिलना चाहती हूं."
"जी, आप कुछ देर यहीं पर रूकिए मैं उनसे बात करके आता हूं." वह तीर की तरह सनसनाते हुए अंदर चला गया. कुछ देर बाद जब वह वापस आया तब उसके साथ एक पैंतीस के आसपास के सौम्य और तेजस्वी व्यक्ति आकर मेरे समक्ष खड़े हो गये. मैं गेट के बाहर थी और वे अंदर थे. उन्हें देखते ही मेरे मन में स्वत: श्रद्धा भाव उत्पन्न हो गया और मैं गेट के बाहर से ही झुक कर उनके रजकण लेने लगी.
"अरे....रे ये क्या कर रही हो तुम ?" उन्होंने अपने पांव खींच लिये.
"आपकी तेजस्विता को देखकर ही मैं समझ चुकी हूं कि आप कोई साधारण पुरुष नहीं हैं, इसलिए आपका आशीर्वाद ले रही थी."
"तुम भी असाधारण हो." द्वार खोलकर वे हंसते हुए बोले -"अंदर आ जाओ." मैं अंदर प्रविष्ट हुई. वे मुग्ध भाव से मुझे देखने लगे - "तुम्हारे अंदर एक अप्रतिम प्रतिभा दिखाई दे रही है मुझे. मेरा नाम पं० एस. एन. त्रिपाठी है और मैं इस थियेटर कंपनी में नृत्य निर्देशक हूं."
"क्या मुझे इस कंपनी में काम मिल सकता है.?" मैंने निर्भीक स्वर में पूछा.
"यह तो इस थियेटर के मालिक ही बतला सकते हैं. आओ मैं तुम्हें उनसे मिलवाता हूं. वैसे तुम्हारा नाम क्या है." वे आगे बढ़ गये. उनके पीछे मैं भी चलने लगी.
"जी, हुस्नबानो." मैं तपाक से बोल पड़ी.
"क्या......?" मेरा नाम सुनकर त्रिपाठी जी एकदम से पलट गये और हैरान नजरों से मुझे घूरने लगे. क्योंकि मेरी वेशभूषा तो हिन्दू युवती की तरह थी, मगर नाम किसी मुस्लिम युवती की तरह.
"आप चौंक गये न गुरु जी." मैं मुस्कुराती हुई उनका शंका समाधान करने लगी. -"मैं मुस्लिम नहीं, हिन्दू हूं. हुस्नबानो नाम मेरे एक मेहरबान का दिया हुआ है."
"ओह....!" त्रिपाठी जी ने एक दीर्घ सांस लिया. वे आगे बढ़ गये और उनके पीछे मैं भी. कई कई टेंटों को पार करने के बाद एक थोड़ा अच्छे किस्म के सजे सजाए टेंट के सामने आकर वे रूक गये और थियेटर के मालिक से आज्ञा लेते हुए बोले -
"क्या हमलोग अंदर आ सकते हैं?"
"जी हां आ जाइए." भीतर से एक बेहद मीठी और शालीन आवाज आयी.
"आओ.....!" मेरी ओर देखते हुए त्रिपाठी जी ने कहा. मैं उनके पीछे-पीछे अंदर दाखिल हुई. एक मूविंग चेयर पर त्रिपाठी जी की उम्र के ही जिस भद्र पुरुष पर मेरी नजर पड़ी उनके व्यक्तित्व को देखकर मेरी गर्दन श्रद्धा से झुक गयी. फिर अपने दोनों हाथ जोड़कर मैंने उनका अभिवादन किया - "नमस्ते सर !"
"नमस्ते....आओ बैठो. "
"जी धन्यवाद .!" मेरे शिष्टाचार को देखकर वे उत्फुल्लित हो उठे. उनके साथ लगभग तीस के उम्र की महिला बैठी थी. वह महिला भी मेरी शालीनता को देखकर अचंभित रह गई.
"गुरु जी पहले आप बैठिए." मैंने त्रिपाठी जी की ओर देखते हुए आग्रह किया.
"तुम भी बैठो." उनके साथ साथ मैं भी बैठ गयी.
"हुस्नबानो.....!" बात की शुरुआत त्रिपाठी जी ने की -"ये हैं कल्पना थियेटर के मालिक श्री मोहन कुमार मेहता जी."
"ओह.....!" मैं मेहता जी की ओर देखती हुई बोली -"आप से मिलकर हार्दिक प्रसन्नता हुई सर."
"मुझे आश्चर्य हो रहा है, तुम्हारी वेशभूषा और नाम में कोई तालमेल नहीं है." मेहता जी ने अपनी शंका व्यक्त की.
"इसका स्पष्टीकरण मैं गुरुजी को दे चुकी हूं."
"खैर, ये मेरी अर्द्धांगिनी श्रीमती कल्पना मेहता है." मेहता जी अपने पार्श्व में बैठी हुई महिला का परिचय देने लगे. -"कल्पना उच्च कोटि की नर्तकी और गायिका है. "
"नमस्ते दीदी." मैंने मुस्कुराते हुए कल्पना जी का अभिवादन किया. मेरे मुंह से अपने लिए दीदी का सम्बोधन सुनकर कल्पना जी अभिभूत हो उठी.
"तुम तो काफी चतुर हो, आते के साथ मुझे दीदी बना लिया."
"यदि रिश्ता न जोड़ूंगी तो फिर यहां रहूंगी कैसे.?"
"कमाल है, काफी बातुनी भी हो तुम." कल्पना जी मुक्त भाव से हंसने लगी. "अच्छा ये तो बताओ तुम कल्पना थियेटर में आई हो किस प्रयोजन से?"
"नौकरी के लिए?"
"मगर यहां तुम काम क्या करोगी.?" इस बार मोहन बाबू ने पूछा.
"नृत्य और गीत गाने के अतिरिक्त यदि किसी ड्रामा में भी कोई छोटी मोटी भूमिका देंगे तो कर लूंगी."
"कोई गीत गा कर सुनाओ."
"बिना साजबाज के ही.?" मैंने पूछा.
"हां, यहां त्रिपाठी जी बैठे हैं, इन्हें सुर और ताल की अच्छी परख है."
"ठीक है, तो फिर कौन सा गीत सुनाऊं लोकगीत या फिल्मी गीत.?"
"लता जी का कोई गीत सुनाओ."
"तो ठीक है, पेश है लता जी द्वारा गाया हुआ फिल्म जिस देश में गंगा बहती है का गीत " फिर मैं पूरी तन्मयता से गाने लगी -
"ओ बसंती पवन पागल
ना जा रे ना जा......
रोको कोई ऽऽऽऽ
ओ बसंती पवन पागल
ना जा रे ना जा
रोको कोई ऽऽऽऽ...."
मेरे इस गीत को सुनकर मेहता जी के साथ साथ त्रिपाठी जी भी झूम उठे. कल्पना जी तो इतनी खुश हुई कि अपनी जगह से उठकर मेरे करीब आ गयी और मुझे गले से लगाकर भाव-विभोर होती हुई बोल पड़ी -"हुस्नबानो, तुम नि: संदेह उच्च कोटि की गायिका हो. तुम्हारी ऊंचाई को मैं नहीं छू सकती."
"मुझे शर्मिंदा मत कीजिए दीदी, भले ही अभी मुझे आपके गीत सुनने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ है, परंतु मैं दावे के साथ कह सकती हूं कि आप एक महान कलाकार हैं."
"अच्छा अब यह सब छोड़ो, तुम वेतन कितना लोगी?" मेहता जी ने पूछा.
"आप क्या देंगे?"
"पांच हजार महीना और तुम्हें जो बख्शीश मिलेगी उसमें से सिक्सटी पर्सेंट हमारा होगा."
"नहीं यह तो ज्यादती है." मैं थोड़ा रूखे स्वर में बोली.
"हमारी कंपनी का ऐसा ही रिवाज है."
"तो इस रिवाज को बदल दीजिए." मैं बेबाकी से बोली.
"अरे, आते के साथ तुम तो नेताओं की भाषा बोलने लगी." मेहता जी बिफर पड़े.
"मैं अन्याय और शोषण बर्दाश्त नहीं करती."
"ऐसी भाषा तो वामपंथियों की होती है."
"गलत सोच है आपकी, ऐसी भाषा हर उस इंकलाबी की होती है जिसके सीने में शोषण, अत्याचार और अन्याय के खिलाफ बगावत के शोले धधक रहे होते हैं."
"यह क्या अनर्गल प्रलाप ले बैठे आपलोग." कल्पना जी अपने पति को झिड़कती हुई बोल पड़ी -"हुस्नबानो तुम बताओ इसमें तुम क्या बदलाव चाहती हो?"
"मैं आठ हजार रुपए मासिक वेतन लूंगी और अपनी बख्शीश में से फोर्टी पर्सेंट आपको दूंगी. और हां मेरे साथ मेरा एक मुंह बोला भाई भी यहीं रहेगा. वह थियेटर में मजदूरी करेगा. उसकी मजदूरी आप स्वयं तय कर दीजिएगा."
"चलो तुम्हारी ही बात सही, लेकिन आठ की सात हजार दूंगा और बख्शीश में फिफ्टी रहेगा."
"ओ के मुझे मंजूर है."
मैंने अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी. कल्पना जी और त्रिपाठी जी खुशी से ताली पिटने लगे.
"काम कब से शुरू करोगी."
"बस समझ लीजिए अभी से ही."
"क्या मतलब.?" मेहता जी के साथ साथ सभी चौंक पड़े.
"मेरा मतलब है आज रात के प्रोग्राम से ही. वैसे मैं थोड़ी देर के लिए बाहर जाना चाहती हूं. बाहर मेरा भाई जग्गू खड़ा है, उसे साथ लेकर आ जाती हूं." इतना कहकर मैं एक झटके में टेंट से बाहर निकल गयी. जाते जाते मेरे कानों में त्रिपाठी जी की आवाज पड़ी थी -
"मेहता जी, आप यकीन मानिए, हुस्नबानो के आ जाने से कल्पना थियेटर में चार चांद लग जाएंगे."
"हां ऐसा मुझे भी लग रहा है " यह आवाज कल्पना जी की थी.
∆∆∆∆∆
क्रमशः.......!
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