"धारावाहिक उपन्यास"
-रामबाबू नीरव
हुस्नबानो की आत्मकथा समाप्त हो गयी. सभी अपने अपने ऑंसू पोंछ रहे थे. अभय और रीतेश का तो हाल ही बेहाल था. यह कैसी विडंबना थी कि कल्पना थियेटर के स्टेज पर नाच-गाकर लोगों का मनोरंजन करती हुई अपनी बेटी को डाक्टर बनाने का सपना देखने वाली हुस्नबानो उन दोनों में से एक की मां थी तो दूसरे की बुआ. अपनी बुआ के प्रति रीतेश के मन में क्षोभ का जो भाव था वह दूर हो गया और अब इस निष्ठुर समाज के प्रति आक्रोश उभर आया. सेठ धनराज जी की बेचैनी का तो आलम ही अजीब था. वे दीवार पर सर पटकते हुए बड़बड़ाने लगे -"यह क्या कर दिया रे किशन तूने, एक अबला नारी को आश्रय देने की बजाए उसे तवायफ बना दिया. आज राज खानदान की बहू नौटंकी के स्टेज पर नाच-गा रही है और मेरी पोती अनाथ जैसी जिन्दगी जी रही है. हे भगवान, यह सब मेरे किस जन्म के पापों की सजा दे रहा है तू.
"दादा जी, खुद को संभालिए." अनुपमा उन्हें सांत्वना देती हुई बोली.
"कैसे संभालूं बेटी, मेरे नालायक बेटे ने राज खानदान का नाम डूबो दिया. जो मैं जानता कि मेरा बेटा ऐसा नालायक निकलेगा तो मैं.......! उसने दो दो मासूम औरतों की जिन्दगी तबाह कर दी. मेरी बहू पूर्णिमा उसके इन्हीं कुकर्मों के चलते घुट घुटकर मर गयी." फिर वे अभय की ओर देखते हुए व्यथित स्वर में बोले -"अभय, मुझे मेरी पोती चाहिए.? मेरा नालायक बेटा किशन राज उसे बाप का नाम दे या न दे, सेठ धनराज उस मासूम को दादा का नाम अवश्य देगा."
"यूं आर ग्रेट दादा जी." अभय खुशी से उछल पड़ा. मैं अभी अपनी बहन को लाने जा रहा हूं. रग्घू काका ड्राइवर को बोलिए मेरी गाड़ी निकालेगा."
"हां बेटा अभी बोलता हूं." रग्घू तेजी से बाहर चला गया. तभी अपनी पीड़ा भूलकर रीतेश बोल पड़ा -"दादा जी, अभय के साथ मैं भी जाऊंगा."
"इस हालत में तुम कैसे जाओगे.?"
"मैं बिल्कुल ठीक हूं दादा जी, मुझे मत रोकिए नहीं तो मेरी हालत और बिगड़ी जाएगी."
"ठीक है जाओ, अमृता तुम्हारी भी बहन है, इसलिए मैं तुम्हें नहीं रोक सकता."
"थैंक यू दादा जी." अभय के साथ रीतेश भी तेजी से बाहर निकल गया.
उन दोनों के जाने के बाद अमृता रूआंसी स्वर में बोली -
"दादा जी मैं भी अपनी होने वाली ननद अमृता राज को देखना चाहती हूं."
"वो उन लोगों के साथ आखिर यहीं आएगी न." सेठ धनराज थोड़ा खीझते हुए बोले.
"नहीं मैं भी उनलोगों के साथ जाऊंगी."
"जाओ भाई जाओ सभी लोग चले जाओ. वैसे मुझे भी एक जरूरी काम से अभी का अभी राजनगर से निकलना है."
अनुपमा सेठ धनराज जी की बात को अनसुनी करती हुई तेजी से बाहर निकल गयी.
*****
अमृता पीएमसीएच में द्वितीय वर्ष की छात्रा थी. कंकड़ बाग के एक गर्ल्स हॉस्टल में रहकर वह अपने भविष्य को संवारने में लगी थी. मगर दिक्कत यह थी कि बिना उसकी पाल्य मां शैव्या अथवा मामा जग्गू के कोई भी अनजान व्यक्ति उससे मिल नहीं सकता था. इसलिए अभय, रीतेश और अनुपमा ने सबसे पहले वैशाली के उस गांव में ही जाना उचित समझा जहां शैव्या रहती थी. वहां पहुंचते पहुंचते शाम हो गयी. जब वे लोग शैव्या के घर पर पहुंचे तब आश्चर्य चकित रह गए. जग्गू, जो अब अमृता का मुंहबोला मामा बन चुका था, वहीं था. जब अभय, रीतेश गाड़ी से नीचे उतरे तब जग्गू रीतेश के कदमों में गिरकर फूट फूटकर रोने लगा. गाड़ी में बैठी अनुपमा जग्गू के इस क्रिया-कलाप को देखकर भौंचक रह गयी, मगर शीघ्र ही वह समझ गयी "यह शख्स जग्गू यानी जगन्नाथ ही होगा." वह भी गाड़ी से नीचे आ गयी. जग्गू रोते हुए कह रहा था -"मुझे माफ़ कर दीजिए रीतेश बाबू आप पर प्रहार करके बहुत भारी अपराध किया है मैंने."
"उठो जग्गू, तुमने कोई अपराध नहीं किया है, बल्कि अपने कर्तव्य का पालन किया है. अपनी दीदी की रक्षा करना तुम्हारा सिर्फ कर्तव्य ही नहीं बल्कि धर्म भी था." रीतेश ने जग्गू को उठाकर अपने सीने से लगा लिया. जग्गू के रोने की आवाज शैव्या के कानों में पड़ चुकी थी. वह बदहवास दौड़ती हुई बाहर आ गयी. वह हैरत से अभय, रीतेश और अनुपमा को एकटक देखती रह गयी. अभय को तो देखते ही वह पहचान गयी कि यह लड़का निश्चित रूप से सेठ किशन राज जी का बेटा होगा, क्योंकि इसकी शक्ल बिल्कुल अमृता से मिलती है. परंतु वह रीतेश और अनुपमा को पहचान नहीं पाई. अभय और रीतेश के साथ साथ अनुपमा भी एक ही नज़र में शैव्या को पहचान गयी. अभय उसके सामने आकर आदर भाव से बोल पड़ा-"मैं आपको क्या कहकर पुकारूं, मौसी कहूं, आण्टी कहूं याकि मां कहुं?"
"मालिक, मैं सिर्फ आपके घर की नौकरानी हूं.... इतना बड़ा सम्मान मुझे मत दीजिए कि कहीं मैं खुशी से मर ही न जाऊं. " अभय की विनम्रता देख रो पड़ी शैव्या."
"नहीं.....आप देवी हैं. आज के इस स्वार्थी जमाने में भला कौन किसी पराये के लिए इतना बड़ा त्याग करता है. यशोदा मैया की तरह आपने मेरी बहन को अपनी बेटी बनाकर उसकी परवरिश की. मगर हमें अफसोस है कि हमलोग आपसे आपकी ममता छीनने आयें हैं. हमारी बहन हमें लौटा दीजिए मौसी." अभय ने कुछ ऐसे करुणा स्वर में विनती की कि शैव्या का कलेजा फटने लगा. वह भी उसकी तरह ही भाव-विभोर हो उठी.
"देखो बेटा, भले ही मैंने अमृता को बेटी की तरह पाला-पोसा है, मगर वह है राज घराने की अमानत ही. माया ने मुझसे कहा था -"दीदी जब भी मेरी बेटी को लेने के लिए इसके दादा जी, पिताजी या भाई आये, इसे खुशी खुशी उनके साथ जाने देना. आज माया की अमानत अपने राजमहल में जाएगी, इसे बड़ी खुशी की बात और क्या हो सकती है मेरे लिए?" फिर वह जग्गू की ओर देखती हुई बोली -"जग्गू, तुम इन लोगों के साथ पटना जाओ और इनकी अमानत इन्हें सौंप दो."
"जी दीदी..... चलिए अभय बाबू." जग्गू उनलोगों के साथ गाड़ी में बैठ गया. अब अभय की गाड़ी पटना की ओर भागी जा रही. जब जग्गू ने अनुपमा के बारे में पूछा तब रीतेश के बदले अभय ने बताया कि यह रीतेश की होने वाली जीवन संगिनी है. यह जानकर जग्गू को हार्दिक प्रसन्नता हुई. जिस समय वे लोग पटना पहुंचे उस समय रात्रि के आठ बज चुके थे और रात्रि में अमृता से मिल पाना संभव नहीं था, इसलिए वे लोग वसुंधरा फूड प्रोडक्ट्स के गेस्ट हाउस में रूक गये.
प्रातः नौ बजे वे लोग अमृता के हॉस्टल में पहुंचे. चूंकि जग्गू प्रत्येक माह अमृता से मिलने आया करता था, इसलिए वह बेधड़क हॉस्टल के अंदर चला गया. उसने अमृता को सारी बातें बता दी. अपनी सच्ची कहानी जानकर अमृता स्तब्ध रह गयी. अपनी सहेली और सहपाठी रूपाली के साथ वह बाहर आयी, जैसे ही उन दोनों की नजर अभय पर पड़ी उन दोनों का सर चकरा कर रह गया. वह एकदम अमृता का हम शक्ल था. कुछ पल तक बदहवासी की हालत में खड़ी रहने के पश्चात अमृता बोली - "मैं कैसे यकीन कर लूं कि आप मेरे भाई हैं. एक जैसी शक्लों सूरत के बहुत सारे इंसान इस धरती पर होंगे."
"अमृता, यदि तुम्हें हमारी बातों पर यकीन नहीं है, तो लो यह डायरी पढ़ लो, यह तुम्हारी मां माया राज के हाथ को लिखी हुई डायरी है, तब तक हमलोग इस गाड़ी में बैठकर तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं." अमृता अभय के हाथ से डायरी लेकर रूपाली के साथ भीतर चली गयी. एकाएक यदि किसी की जिन्दगी में इतना बड़ा बदलाव आ जाए तो उसे बहुत कुछ सोचने को मजबूर हो जाना पड़ता है. अमृता के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ. उसकी मां शैव्या नहीं बल्कि हुस्नबानो है, जो कल्पना थियेटर की नर्तकी है और उसके पिता वसुंधरा फूड प्रोडक्ट्स प्रा० लि० के मालिक किशन राज जी हैं, जो वर्तमान में एमपी भी हैं. और उसके दादाजी सेठ धनराज जी हैं, जो बहुत बड़े उद्योगपति माने जाते हैं. अमृता की समझ में नहीं आ रहा था कि वह इस सच्चाई को जानकर हंसे या रोए. उसे अपनी अनोखी जिंदगी के बारे में आशंका तो उसी वक्त हो गयी थी, जब उसने अपना होश संभाला था. उसके माता-पिता साधारण मजदूर थे , मगर उसकी परवरिश इस तरह से कर रहे थे, जैसे वह किसी राजघराने की राजकुमारी हो. उसे बताया गया कि उसकी परवरिश से लेकर पढ़ाई-लिखाई तक का सारा खर्च उसके जग्गू मामा वहन कर रहे हैं, मगर अपने जग्गू मामा को देखकर उसे कतई ऐसा न लगा कि वे इतना बड़ा बोझ उठा सकते हैं. हालांकि वह बचपन से ही मेधावी रही है, और अपनी प्रतिभा के बल पर ही पीएमसीएच में उसका दाखिला हुआं था, मगर सिर्फ दाखिला हो जाने से ही तो एमबीबीएस की पढ़ाई नहीं हो जाती. इसे पूरा करने के लिए अन्य बहुत सारे खर्च करने होते हैं. वह अबतक अंधकार में ही भटकती रही. मगर आज आखिरकार उस रहस्य पर से पर्दा उठ ही गया. वह जैसे जैसे डायरी पढ़ती जा रही थी वैसे वैसे उसका क्रंदन भी बढ़ता जा रहा था. डायरी के खत्म होते ही वह अपनी सहेली रूपाली से लिपटकर फूट-फूट कर रोने लगी.
"रूपाली, मेरी ज़िन्दगी ऐसी त्रासदीपूर्ण होगी, मैं सोची भी न थी. मेरी जिंदगी संवारने के लिए मेरी मां स्टेज पर नाच-गा कर लोगों का मनोरंजन करती रही और मैं उनकी कमाई पर ऐश करती रही. उफ़.......!"
"चुप हो जा अमृता, तुम्हें तो खुश होना चाहिए कि तुम्हें तुम्हारे अपने मिल गये." रूपाली उसे धैर्य बंधाती हुई बोली.
"हां, सब कोई तो मिल गये, मगर मेरी मां न मिली."
"तुम दुखी न हो अमृता जिंदगी के किसी मोड़ पर एक न एक दिन वे भी तुम्हें मिल ही जाएंगी. अब देर न करो, जाओ वे लोग तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं."
अमृता अपने ऑंसू पोंछ कर खड़ी हो गयी फिर जल्दी जल्दी अपने सामान पैक करके बाहर आ गयी.
∆∆∆∆∆
क्रमशः.......!
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