"धारावाहिक उपन्यास"


-रामबाबू नीरव 

अनुपमा पुनः हुस्नबानो की डायरी पढ़ने लगी -"जब मैं अपने पूज्य श्वसुर जी के साथ वसुंधरा पैलेस के विशाल हॉल में पहुंची तब वहां की भव्यता और खुबसूरती देखकर दंग रह गयी. पश्चिमी सभ्यता और संस्कृति की झलक तक न थी वहां. दीवारों पर विभिन्न देवी-देवताओं तथा भारत के महापुरुषों की तस्वीरें टंगी थी. हॉल के बीचोबीच एक खुबसूरत टेबल पर बड़ा सा केक रखा था. पूरे हॉल को झाड़ फानुसों , बैलुनों तथा रंग-बिरंगे बल्बों से सजाया गया था. जब छोटे छोटे सतरंगे बल्ब जलते और बुझते तब उसमें लिखा हुआ नजर आता -"हैप्पी बर्थडे डे अभय, तुम्हें ग्यारहवां जन्मदिन मुबारक हो." मैं ठहरी गांव-गवई की रहने वाली. किसी अमीर घराने के लाडले के जन्म दिन का ऐसा तामझाम पहली बार देख रही थी. हॉल में कई नौकर नौकरानियां अपने अपने काम में व्यस्त थे. हॉल  के एक कोने में अभय अपने हमउम्र दोस्तों के साथ खेल रहा था. चूंकि वहां जितने भी बच्चे थे सबों ने एक जैसे ही यूनिफार्म पहन रखे थे, इस कारण मैं उन बच्चों में अभय को पहचान नहीं पाई. वैसे पहचानती भी कैसे...... मैं तो उसे आज तक देखी ही न थी. 

"बहू......!" इस आलीशान कोठी के मालिक यानी मेरे श्वसुर जी की रोबीली आवाज गूंज उठी. कुछ देर बाद ही कॉरिडोर के ऊपर इस हवेली की गृह लक्ष्मी पूर्णिमा राज की सुन्दर और सौम्य आकृति दृष्टिगोचर हुई. वे विशुद्ध भारतीय परिधान में देवी सदृश लग रही थी. साड़ी तो मैंने भी पहनी थी, परंतु उनकी साड़ी और मेरी साड़ी में जमीन आसमान का अंतर था. इसमें तनिक भी संदेह नहीं कि वे मुझसे अधिक खुबसूरत थी. उनके सम्मान में मेरी गर्दन स्वयंमेव श्रद्धा से झुक गयी. उनकी दृष्टि मुझपर पड़ चुकी थी. वे चकित भाव से मुझे घूरे जा रही थी. कुछ पल बाद उनके मुंह से निकल पड़ा -"जी बाबू जी आप कुछ कहना चाहते हैं." मुझे ऐसा लगा कि पूरे हॉल में कोयल की मधुर आवाज़ गूंजने लगी हो. इतने पड़े उद्योगपति की बहू के संस्कार विशुद्ध भारतीय होंगे ऐसा तो मैं सोच भी न पायी थी. लोग तो धनवान बनते ही इतराने लगते हैं और ऐसा दिखावा करते हैं जैसे वे इस धरती के प्राणी हो ही नहीं. अपनी भारतीय परंपराओं और संस्कारों को भूल कर पाश्चात्य सभ्यता और संस्कृति में रंगते चले जाते हैं. ऐसा नजारा मैं बाहर के पंडाल में देख चुकी थी. 

"यहां आओ बहू." सेठ धनराज जी की आज्ञा का पालन करती हुई पूर्णिमा जी कॉरिडोर से उतरकर नीचे आयी और हमलोगों के समक्ष खड़ी हो गयी. वे अब भी मुझे कौतूहल पूर्ण नजरों से घूरेने. इस बीच पल भर के लिए भी उनका ऑंचल सर से नीचे न सरका. यही तो पहचान है एक आदर्श भारतीय नारी की.बड़े-बजुर्गों के समक्ष सर पर ऑंचल डालकर उन्हें सम्मान देना हमारी सभ्यता की आदर्श परंपरा रही है. और इस परंपरा का निर्वाह पूर्णिमा जी बड़ी निष्ठा से कर रही थी. 

"बहू इससे मिलो....यह है माया." अपनी बहू की जिज्ञासा को शान्त करते हुए सेठजी बोल पड़े-"उच्च कोटि की नृत्यांगना है. आज अपने अभय के जन्म दिन पर ये प्रोग्राम पेश करने आयी है."

"ओह......!" मेरा परिचय जानने के बाद उनके चेहरे पर संतोष की झलक दिखने लगी. अब हमारे श्वसुर जी मेरी तारीफों के पुल बांधने लगे-"बहू, बाहर जो स्त्रियों की भीड़ है उसमें यह अकेली ऐसी है जिसके आचार, विचार और संस्कार ने मुझे इतना प्रभावित किया कि मैं इसे तुम से मिलवाने के लिए सीधे यहां ले आया और बेटी माया.....!"

"जी बाबू जी." मैं चिहुंक पड़ी. 

"यह मेरे खानदान की गृह लक्ष्मी है, मेरी बहू पूर्णिमा राज." मैं अपना फर्ज निभाती हुई पूर्णिमा जी के चरणों में झुक गयी. उन्होंने बीच में ही मुझे थाम लिया और स्नेहसिक्त स्वर में बोल पड़ी -

"अरे....रे, यह क्या कर रही हो .?"

"अपनी बड़ी दीदी का चरण छू रही हूं. क्या इतना भी करने का अधिकार नहीं है मुझे. मुझे आशीर्वाद दीजिए न दीदी." मैं बेबाकी से हंस पड़ी.  मैं कन्खियों से देख रही थी, हम-दोनों के श्वसुर जी मेरी इस मनमोहक अदा पर मंद मंद मुस्कुरा रहे थे. 

"सदा सुहागन रहो." मेरे माथे पर स्नेह से हाथ फेरते हुए पूर्णिमा जी ने मुझे स्नेहिल आशीर्वाद दिया. थोड़ी देर‌ के लिए मैं विचलित हो गयी. जिस औरत का मैं सुहाग बांट चुकी हूं वही मुझे सदा सुहागन रहने का आशीर्वाद दे रही है. यह मेरे जीवन की कैसी विडम्बना है? उन्होंने मुझे उठाकर अपने सीने से चिपका लिया. मुझे एक ऐसे अलौकिक सुख की प्राप्ति हुई, जिसकी कल्पना तक मैंने नहीं की थी. 

"बहू तुमलोग बातें करो, मैं बाहर मेहमानों को देखता हूं."

"जी, ठीक है बाबूजी." पूर्णिमा जी ने आदरभाव से कहा. हमारे श्वसुर जी वहां से चले गये. उनके जाने के बाद दीदी मुझे आलिंगन से मुक्त करती हुई बोली -"सचमुच तुम अद्भुत हो, आते के साथ तुमने मुझे अपनी बहन बना लिया."

"आप इतनी महान हैं कि....." मैं उनकी प्रशंसा करना चाह रही थी, मगर वे रोकती हुई तपाक से बोल पड़ी-

"देखो माया, मुझे अपनी प्रशंसा कतई पसंद नहीं है. आओ वहां बैठते हैं." वे मेरी कलाई थाम कर एक सोफा के निकट ले आयीं और अपने पार्श्व में मुझे बैठने को विवश कर दिया. 

"बाबू जी ने कहा कि तुम कुशल नृत्यांगना हो....?" उनकी ऑंखों में जिज्ञासा के भाव देखकर मैं समझ गयी कि वे मेरे बारे में और भी कुछ जानना चाहती हैं. मसलन मैं कहीं कोठे पर मुजरा करने वाली तवायफ तो नहीं हूं?

"जी, दीदी मैंने अभी अभी शौक से नृत्य सीखा है. मैं पेशेवर नर्तकी नहीं हूं. मैं भी किसी ऊंचे खानदान से की बहू हूं. आपके पति देव मेरे पति के मित्र हैं, उनके ही विशेष आग्रह पर मैं यहां आयी हूं."

"देखो माया, मुझे ग़लत मत समझना." उन्होंने मेरा हाथ थामते हुए कहा. "लगता है मेरे प्रश्न से तुम्हें तकलीफ हुई है."

"नहीं तो." मैं बेबाकी से हंस पड़ी -"बड़ी बहन की बातों से छोटी बहन को तकलीफ़ क्यों होगी भला." 

"तुम बड़ी शोख और चंचल हो. ऐसी चंचलता और मृदुलता तो मैं आज तक किसी युवती में नहीं देखी थी. अच्छा ये बताओ तुम क्या लेना पसंद करोगी, चाय या कॉफी.?"

"नहीं कुछ भी नहीं." तभी मेरी नजर उनकी अंगूठी पर पड़ गयी. हीरा जड़ित उस अंगूठी में बड़ी बारीक हर्फ़ों में लिखा था"पूर्णिमा राज "

"दीदी, आपकी ये अंगूठी तो काफी खुबसूरत है."

"क्या तुम्हें पसंद है.?"

"नहीं.... नहीं ऐसी कोई बात नहीं है." मैं तपाक से बोल पड़ी. 

"मैं सब समझती हूं." वे अपनी अंगुली से अंगूठी निकालकर मेरी अंगुली में पहनाती हुई हंस पड़ी -"मेरी ओर से यह उपहार स्वीकार करो, देखो इंकार मत करना नहीं तो मेरा दिल टूट जाएगा." अब मैं क्या बोलूं. उनका मान तो रखना ही था. 

"अभय कहां है?"  मैंने पूछा. 

"वो, वहां अपने दोस्तों के साथ खेल रहा है." उन्होंने उन लड़कों की ओर इशारा कर दिया. 

"मैं एक झलक अभय का पाना चाहती हूं, क्या मेरी यह अभिलाषा पूर्ण नहीं हो सकती.?"

"हां क्यों नहीं हो सकती.....अभय बेटा, जरा इधर तो आना."

"आया मां." अभय दौड़ता हुआ आकर हमारे सामने खड़ा हो गया. उसे देखकर मेरी आत्मा जुड़ा गयी. मगर उस मासूम को क्या मालूम कि जिसके समक्ष वह आकर खड़ा हुआ है वह उस६ सौतेली मां है. वह मुझे उत्सुक नजरों से देखने लगा.

"बेटा इन्हें प्रणाम करो, ये तुम्हारी मौसी हैं." पूर्णिमा जी ने उसे आज्ञा दी. 

"मौसी....यह मौसी क्या होता है मॉं?" बड़े भोलेपन से उसने प्रश्न किया.

"बेटा.... मौसी का मतलब होता है मॉं जैसी."

"ओह.... यानी मेरी दूसरी मॉं." अभय के मुंह से भले ही भोलेपन के कारण यह बात निकली थी, मगर बिल्कुल सच्ची थी यह बात. मेरे पूरे बदन में झुरझुरी सी दौड़ने लगी.

"हां, यही समझ लो." पूर्णिमा जी हंस पड़ी और अभय मेरे चरणों में झुक गया. 

"जुग जुग जियो मेरे लाल." मेरे मुंह से& निकल पड़ा और 

मैंने उसे उठाकर अपने सीने से लगा लिया. मेरे मन ने सरगोसी की -"प्रथम बार मैं अपने बेटे से मिल रही हूं, इसे उपहार में क्या दूं? तभी मेरी नजर पूर्णिमा दीदी की दी हुई अंगूठी पर पड़ गयी. और मैंने झट से अंगूठी निकालकर कर अभय की अंगुली में पहना दी. मेरी इस हरकको देखकर पूर्णिमा दीदी हैरान रह गयी और मुझे रोकती हुई बोल पड़ी -" यह क्या कर रही हो.?" 

"क्षमा करिए दीदी, मेरे पास अभी आपके द्वारा दिए गए इस उपहार के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है, जो अभय को दूं.... इसलिए."

"आखिर तुमने अपने अद्भुत होने का प्रमाण दे ही दिया." वे एकबार फिर हंस पड़ी. अभय खुशी से उछलते हुए अपने मित्रों की मंडली में जाकर शामिल हो गया. 

"दीदी अब मैं चलती हूं, मेरे साथी मेरा इंतजार कर रहे होगे." मैं द्वार की ओर मुड़ गयी.

"मगर कॉफी.....!"

"कोई बात नहीं दीदी, फिर कभी आकर पी लूंगी, आप पर उधार रहा." मैं हंसती हुई बाहर निकल गयी.

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क्रमशः............!

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