"धारावाहिक उपन्यास"

-रामबाबू नीरव 

अपनी गाड़ी से नीचे उतर कर अभय, रीतेश, अनुपमा और जग्गू बड़ी विकलता से अमृता की प्रतीक्षा कर रहे थे. अभय के मन में बार-बार आशंका उठ खड़ी होती "यदि अमृता ने इंकार कर दिया तो." इस आशंका से वह विचलित हो जाता. लगभग ऐसी ही मनोदशा रीतेश की भी थी. लेकिन शीघ्र ही उन लोगों की आशंका निर्मूल साबित हुई. अमृता अपने हाथ में बैग लिए हुई हॉस्टल से निकल कर उनलोगों के समक्ष आकर खड़ी हो गयी. उसके साथ उसकी सहेली रूपाली भी थी. उसकी नजर रीतेश और अनुपमा पर पड़ी. अपने भाई अभय को तो वह पहचान चुकी थी, परंतु रीतेश और अनुपमा को नहीं पहचान पाई. उसकी उत्कंठा को शांत करते हुए अभय बोला -

"यह रीतेश है, यह भी तुम्हारा भाई ही है."

"ओह, पहचान गयी.... मेरी मां के भतीजा हैं आप."

"सही पहचाना बहन." खुशी के मारे रीतेश की आंखें छलछला पड़ी.

"और ये कौन हैं?" उसका इशारा अनुपमा की ओर था.

"ये तुम्हारी होने वाली भाभी यानी रीतेश की मंगेतर अनुपमा जी हैं." अभय ने अनुपमा का परिचय दिया.

"ओह.... बहुत खुबसूरत है मेरी भाभी." अमृता बेतहाशा अनुपमा से लिपट गयी. अनुपमा का रोम रोम पुलक उठा. अमृता की चंचलता ने सबों को सम्मोहित कर लिया. आनंद की इस सुखद बेला में जग्गू का दिल बांसों उछलने लगा -"काश इस समय माया दीदी यहां होती तो.....!" अपनी माया दीदी को याद कर जग्गू की ऑंखों से दो बूंद ऑंसू ढुलक पड़े. 

"अमृता....अब हमें चलना चाहिए, देर हो रही है." अभय ने कहा.

"हां भैया. चलती हूं.... मैं जरा अपनी सहेली से गले मिल लूं." और वह रूपाली से लिपट गई. विछोह की इस घड़ी में दोनों की ऑंखें भर आई. 

"जाओ अमृता, मगर शीघ्र आ जाना, पढ़ाई रोकना मत." अमृता से अलग होकर रूपाली बोली.

"कैसी बातें करती हो रूपाली, भला मैं अपनी मां के सपना को पूरा न करूंगी." अमृता गाड़ी पर चढ़ गयी. उसके बगल में अनुपमा बैठी. और अनुपमा के बगल में रीतेश. जग्गू पीछे की सीट पर बैठ गया. अभय ड्राइवर के बगल में बैठा.

"भैया अभी हमलोग कहां जा रहे हैं?" अमृता ने अभय से पूछा.

"अपने पुश्तैनी घर राजनगर स्थिति राज पैलेस में."

"क्या मैं अपनी पालने वाली मां से नहीं मिल सकती." अमृता की दर्द भरी गुहार सुनकर सभी का दिल तड़प उठा.

"हां हां क्यों नहीं मिल सकती, ड्राइवर पहले वैशाली चलो."

"जी अभय बाबू." ड्राइवर ने गाड़ी की दिशा मोड़ दी.

     अपने सामने शैव्या को देखकर अमृता फफक फफक कर रोने लगी. जिस मां ने बाइस वर्षों तक पाल-पोस कर उसे इस मुकाम तक पहुंचाया आज उससे सदा सदा के लिए अमृता जुदा हो रही थी. फिर उसका कलेजा फटता क्यों नहीं. उधर जग्गू भी बेजार ऑंसू बहाये जा रहा था.  मगर मजबूरी ऐसी थी कि अमृता को जाना ही होगा. शैव्या ने अपने सीने पर सब्र का पत्थर रख लिया. शैव्या का पति उस समय वहां मौजूद न था. अपने पाल्य पिता से न मिलने का ग़म दिल में लिए हुई अमृता विदा हो गयी अपनी नई मंजिल की ओर जहां उसके अपने दादाजी बड़ी बेचैनी से उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे.

                  *****

   राज पैलेस के सामने गाड़ी रूकी. अमृता एकदम से अचंभित रह गयी. वह सपने में भी नहीं सोच पायी थी कि उसका संबंध इतने बड़े घराने से होगी. जब उसके कदम हवेली के अंदर पड़े तक रग्घू ने उसी भांति उसका आरती उतारते हुए स्वागत किया, जैसे उसने कभी कंचन का किया था. इस खानदान की बेटी अमृता को देखकर उसकी ऑंखें जुरा गयी. 

"अमृता ये रग्घू काका हैं. हमारे खानदान के वफादार सेवक. मैं इनकी ही गोद में पला हूं." अमृता तेजी से रग्घू के चरणों में झुक गयी.

"जुग जुग जियो बेटी." रग्घू की ऑंखों से प्रसन्नता के ऑंसू झरने लगे. 

"अभय बाबू, अब मुझे इजाज़त दीजिए. मेरी मां बेचैन हो रही होगी."

अनुपमा अभय से आग्रह करती हुई बोली.

"ठीक है भाभी आप जाइए." अभय ने अनुमति दे दी. रीतेश उसे पहुंचाने के लिए उसके साथ जाने लगा तभी अमृता उसका रास्ता रोकती हुई व्याकुल स्वर में पूछा बैठी -"आप फिर कब आइएगा भाभी."

"जब भी तुम बुलाओगी मैं आ जाऊंगी." अनुपमा हंसती हुई रीतेश के साथ चली गयी. 

अभय की नजरें इधर-उधर अपने दादाजी को ढ़ूंढने लगी. उसे महान आश्चर्य हो रहा था, दादाजी अपनी पोती से मिलने के लिए द्वार तक आए क्यों ?

"काका, दादाजी कहां हैं?" उसने हैरत से पूछा.

"मालिक तो तुम लोगों के यहां से जाने के बाद ही चले गये."

"क्या.....?" रग्घू की बात सुनकर अभय और अमृता के दिल को चोट लगी. अमृता के सपनों का महल टूट कर बिखरने सा लगा. उसने क्या क्या सपने ‌देखे थे. सोची थी दादा जी देखते ही उसे अपनी बाहों में भर‌ लेगें, मगर.....! 

"हां बेटा, वे बोल कर गये हैं कि उन्हें एक बहुत जरूरी काम करना है, मेरी पोती की अच्छी तरह से खातिरदारी करना. तुमलोग सफर से आये हो, जाओ आराम कर लो."

अनमने भाव से वे दोनों फ्रेस होने के लिए चले गये. अमृता को उस कमरे में ठहराया गया जिसमें पूर्णिमा जी रहा करती थी. कुछ ही घंटों में अमृता अपने मृदुल व्यवहार से राज पैलेस के सभी सेवक सेविकाओं के दिल में बस गयी. उसने एक नौकरानी के साथ मिलकर पूर्णिमा जी और अभय के कमरे के साथ साथ रीतेश के कमरे को भी कलात्मक ढंग से सजा दिया. 

   दूसरे दिन ही सेठ धनराज जी का फोन आया. फोन अभय ने ही रिसीव किया -"अभय तुम अमृता, रीतेश और अनुपमा के साथ पटना से कोई भी फ्लाइट पकड़कर शीघ्र ही दिल्ली आ जाओ."

"क्या बात है दादाजी?" चकित भाव से अभय ने पूछा. 

"मैं तुम लोगों को उपहार देना चाहता हूं. खासकर अपनी पोती अमृता को."

"ऐसा कौन सा उपहार है?"

"यहां आने के बाद बताऊंगा."

"ठीक है हमलोग आ रहे हैं." अभय रिसीवर रखकर रीतेश के कमरे की ओर दौड़ पड़ा और उसे दादाजी का हुक्म सुनाते हुए शीघ्र ही अनुपमा को लेकर आने को कहा. रीतेश भी उत्फुल्लता से अमृता के घर की ओर भागता चला गया.

                 *****

     पंजाबी बाग स्थित बसुंधरा पैलेस के सामने जैसे ही वे चारों गाड़ी से नीचे उतरे कि वहां की सजावट देखकर उनका सर चकरा कर रह गया. अभय कुछ समझ नहीं पाया....आज क्या है जो दादाजी ने बसुंधरा पैलेस को नयी नवेली दुल्हन की तरह सजवाया है. हो सकता है अमृता के आने की खुशी में उन्होंने ऐसा किया हो. तभी उसकी नज़र मुख्य द्वार पर खड़े सेठ धनराज जी पड़ी. उनके चेहरे पर छाए उल्लास को देखकर उसका रोम रोम पुलक उठा. रीतेश अमृता और अनुपमा भी दंग रह गयी. वैसे अमृता तो पहली नजर में ही देवता स्वरूप अपने दादाजी को पहचान चुकी थी, फिर भी वह असमंजस की स्थिति में खड़ी एकटक उन्हें निहारती रही गयी. अभय ने उसे टोकते हुए कहा -"अमृता वे हैं हमारे दादा बसुंधरा फूड प्रोडक्ट्स प्रा० लि० के मैनेजिंग डायरेक्टर सेठ धनराज जी."

"ओह....!"अमृता फुदकती हुई एक ही छलांग में सेठजी के करीब पहुंच कर उनके चरणों  में झुक गयी. सेठ जी ने उसे उठाकर अपनी आगोश में भींच लिया. उनकी ऑंखों से ऑंसुओं की बरसात होने लगी -"हमलोगों ने तुम्हें बहुत दु:ख दिया न बेटी. दादा, पिता, मां और भाई के रहते हुए भी तुम अनाथ की तरह जिन्दगी जीती रही. हमारे गुनाहों को माफ कर दो बेटी."

"दादाजी." अमृता का कलेजा फटने लगा, कितने महान हैं उसके दादा जी. वह उनके ऑंसू पोंछती हुई उलाहने भरे स्वर में बोली -"दादाजी, यदि आप ऐसी बातें करेंगे तो मैं अभी वापस चली जाऊंगी."

"वाह....! वापस चली जाओगी, अपनी मां से मिले बिना चली जाओगी." सेठ जी के ओठों पर रहस्यमयी मुस्कान थिरकने लगी. 

"क्या कहा आपने मां.......?" सिर्फ अमृता ही नहीं बल्कि अनुपमा के साथ साथ अभय और रीतेश भी बेतहाशा चौंक पड़े. 

"हां, तुम्हारी मां राज खानदान की छोटी बहु मिसेज माया राज. जाओ, हवेली के अंदर बैठी तुम्हारा इंतज़ार कर रही है."

"ओह, दादा जी कहीं मैं खुशी से पागल न हो जाऊं." अमृता वहां से भाग खड़ी हुई. 

                 *****

जैसे ही अनुपमा के साथ अभय, रीतेश और अनुपमा ने हॉल में कदम रखा  कि अचानक अभय को लगा जैसे वह चक्कर खाकर गिर पड़ेगा. वहां अकेली माया (हुस्नबानो) न थी बल्कि अभय के दिल की धड़कन कंचन भी थी. अमृता तो दौड़ती हुई अपनी मां से जाकर लिपट गई और अनुपमा  कंचन के निकट आकर उसका चिबुक उठाती हुई बोली -"मेरी देवरानी, यदि लाखों में नहीं तो हजारों में एक तो हैं ही." हालांकि उसने कंचन को देखा न था, मगर उसे अंदाजा हो गया कि यह लड़की अभय राज को नयी जिन्दगी देने वाली कंचन ही होगी. कंचन अनुपमा को पहचान नहीं पाई, वह साभिप्राय उसकी ओर देखने लगी. उसके मन के भाव को भांप कर अनुपमा अपना परिचय स्वयं देती हुई बोली -

"मैं रीतेश बाबू की मंगेतर हूं, अनुपमा."

"ओह.!" कंचन प्रसन्नता से उछल पड़ी.-

 "आप भी तो अपने नाम के अनुरूप ही हैं." 

"अभय.... अब तो तुम खुश हो न." अपने दादाजी की आवाज सुनकर अभय पीछे की ओर पलट गया. सेठ धनराज जी मंद मंद मुस्कुरा रहे थे.

"यूं आर ग्रेट दादा जी." अभय सेठ जी की आगोश में समा गया.

              ∆∆∆∆∆

क्रमशः........!

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