"धारावाहिक उपन्यास"
राम बाबू नीरव
स्टेज हालांकि छोटा था, परंतु लाइट और साउंड की इतनी अच्छी व्यवस्था थी कि हम कलाकारों की तबीयत खुश हो गयी. जब पूरा पंडाल मेहमानों से खचाखच भर गया तब प्रोग्राम आरंभ करने की प्रक्रिया आरंभ हो गयी. एक काफी आकर्षक और तेज-तर्रार युवक उद्घोषक के रूप में आया था. स्वयं मेरे पतिदेव ने उस युवक से मेरा परिचय करवाया. अभी तक वे इस बात से अनभिज्ञ थे कि मैं बाबूजी, पूर्णिमा दीदी और अभय से मिल चुकी हूं. असल में यह सब बताने का मौका ही न मिला. स्टेज पर सभी साजिंदे अपने अपने साज बाज दुरुस्त करने लगे और हम सभी महिला कलाकार मेकअप करने के लिए ग्रीन रूम में आ गयी. कार्यक्रम की प्रथम प्रस्तुति मुझे ही देनी थी. गुरुजी ने उद्घोषक को सारा शेड्यूल समझा दिया था. जब हमलोगों की ओर से हरी झंडी मिल गई तब उद्घोषक ने कार्यक्रम आरंभ होने की घोषणा की. सर्वप्रथम शास्त्रीय संगीत की झंकार फिजाओं में गूंज उठी. नि:संदेह मेरे साथ संगत करनेवाले सारे वादक उच्च कोटि के कलाकार थे. संगीताचार्य अनिरुद्ध शास्त्री स्वयं तबला बजा रहे थे. अचानक मैं बुरी तरह से चौंक पड़ी. स्टेज पर उद्घोषक की जगह स्वयं किशन राज जी नजर आये, हाथ में माइक लिये हुए. उन्हें एक सफल उद्घोषक के रूप में देखकर सिर्फ मैं ही नहीं बल्कि गुरुजी के साथ साथ मेरे सभी साथी कलाकार भी स्तब्ध रह गये. वे सधी हुई आवाज में बोल रहे थे -"मित्रों आज मेरे पुत्र अभय राज का ग्यारहवां जन्मदिन है, खुशी के इस मौके पर मैंने आपलोगों के मनोरंजन के लिए इस छोटे से सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन करवाया है. आज के इस मनमोहक कार्यक्रम की शुरुआत उस अनमोल मोती की प्रथम प्रस्तुति से होगी, जिसे मैं समुद्र में गोते लगाकर उसकी तलहटी से निकाल कर लाया हूं और उस अनमोल मोती का नाम है हुस्नबानो."
तालियों की गड़गड़ाहट से पूरा पंडाल गूंज उठा. और इधर मेरे साथ साथ सारे कलाकारों तथा गुरु जी का भी सर चकरा कर रह गया. यहां आयी किसी भी महिला कलाकार का नाम हुस्नबानो नहीं था. तो फिर हुस्नबानो है कहां.? आज के कार्यक्रम की शुरुआत तो मुझसे होनी थी, तो फिर बीच में यह हुस्नबानो कहां से आ गयी.? किशन राज जी ने मेरे साथ इतना बड़ा धोखा क्यों किया.? मेरी इच्छा हुई कि मैं यहां से भाग जाऊं. तभी वे चहलकदमी करते हुए स्टेज के उस किनारे पर आ गये, जहां गुरु जी के साथ मैं खड़ी थी. अपना दायां हाथ मेरी ओर बढ़ाते हुए वे मृदुल स्वर में बोले -
"ऊपर आ जाओ."
"क्या मैं.....?" अचकचाती हुई मैं उन्हें घूरने लगी.
"हां तुम.....!" उनके अधरों पर कुटिल मुस्कान थिरकने लगी थी.
"मगर आपने तो किसी हुस्नबानो को.....?"
"तुम ही तो हो वह नगीना जिसे मैं आज खुशी के इस मौके पर हुस्नबानो के खिताब से नवाज रहा हूं." उनकी मुस्कान और भी कुटिल हो गयी और इसके साथ ही उन्होंने मुझे स्टेज पर खींच लिया.
"ओह..... इतनी बड़ी मक्कारी....!" ऐसा लगा जैसे मुझ पर कड़कड़ाती हुई बिजली गिर पड़ी हो. पलक झपकते ही इस आदमी ने मुझे बाज़ार की वस्तु बना दिया. मगर मेरे साथ इतना बड़ा छल क्यों किया सेठ किशन राज ने.? जब मुझे एक तवायफ के रूप में अपनी रखैल बनाना था तो साफ साफ कह दिया होता कि मैं तुम्हारे साथ सिर्फ मनोरंजन करना चाहता हूं, इच्छा होती तो इनकी रखैल बन जाती, न होती तो किसी नदी नाले में कूदकर जान दे देती. लेकिन मेरी मांग में सिंदूर भरकर , अपनी दूसरी पत्नी का दर्जा देने की बात कहकर, इतना बड़ा धोखा दिया मुझे. आखिर क्यों, मेरे साथ ही पग पग पर ऐसा धोखा क्यों होता है.? इस संसार के सारे मर्द एक जैसे हैं, मक्कार और धोखेबाज. आज से पूर्व जिस आदमी को मैं श्रद्धा की दृष्टि से देखती रही, पलक झपकते ही वह आदमी मेरे लिए घृणा का पात्र बन गया.
"क्या सोचने लगी हुस्नबानो." मेरी खामोशी उन्हें खलने लगी थी.
"कुछ नहीं, मन ही मन अपने अनोखे भाग्य को कोस रही हूं " मेरे अधरों पर फीकी मुस्कान थिरकने लगी. उन्हें मेरे दिल में उठ रहे भयानक तूफान का अंदाजा हो चुका था. मेरे चेहरे के भाव से ही वे समझ चुके थे कि मैं किस मन: स्थिति से गुजर रही हूं. मैं सहज होकर मंच को नमन करने के पश्चात सभी गुरुजनों का आशीर्वाद ली और उनके हाथ से माइक छीनकर एक तवायफ के रूप में आ गयी. अब मेरा दिल पत्थर से भी अधिक कठोर हो चुका था. मुझे जो बनाना चाहा था इस इंसान ने बना दिया, अब अफसोस करने से ही क्या होगा. पल भर के लिए मेरी नजरें किशन राज जी की नजरों से टकरा गई. मेरी ऑंखों से निकलने वाली चिंगारी ने उनके जिस्म में आग लगा दी. वे तड़प उठे और उस ताप से बचने के लिए स्टेज से नीचे उतर कर सामने की कतार में अपने दोस्तों के साथ बैठ गये. उस कतार में राजनीति के बड़े-बड़े धुरंधर बैठे थे. उनमें से कुछ केन्द्रीय मंत्री भी थे. सबों की नजरें मुझपर ही टिकी हुई थी. अपने धड़कते हुए दिल को थाम कर वे सभी इस इंतजार में थे कि माया से हुस्नबानो बनने के बाद मैं कैसा धमाल मचाती हूं?
"मेरे कद्रदानों.....!" माइक पर मेरी सुरीली आवाज गूंज उठी -"आज की ये हसीन शाम मैं अपने उस मेहरबान के नाम करती हूं, जिन्होंने मुझ नाचीज़ को हुस्नबानो के खिताब से नवाजा है. उस मेहरबां का यह करम सर ऑंखों पर." मैं कुछ इस अंदाज में झुक कर किशन राज जी को सलाम करने लगी कि उनके होश गुम हो गये. इतने नासमझ तो न थे वे कि मेरी इन बातों में छुपे हुए तीखे व्यंग्य के भाव न समझे हों.
"मेहरबानों पहले से यह तय था कि मैं आजके प्रोग्राम का आगाज अपने नृत्य से करती, परंतु खुशी से मैं इतनी लवरेज हो चुकी हूं कि पहले एक नगमा पेश करने की इजाजत चाहूंगी."
"इरशाद." खुशी से दर्शक चिल्लाने लगे.
"शुक्रिया, तो लीजिए पेशे खिदमत है लताजी का दर्द भरा यह नगमा." मैंने साजिंदों को कुछ इशारा किया और साज बाज पर मधुर संगीत गूंजने लगा उस संगीत के साथ जब मेरी दर्द भरी आवाज उभरी तब श्रोता झूम उठे-
"इस तरह तोड़ा मेरा दिल क्या मेरा दिल दिल न था.......!
इस तरह तोड़ा मेरा दिल क्या मेरा दिल दिल न था.
ये तो कह जाते तुम्हारे प्यार के काबिल न था.
इस तरह तोड़ा मेरा दिल क्या मेरा दिल दिल न था.
आपको अपना समझकर अपनी किस्मत सौंप दी....!
अपने अरमां दे दिए अपनी मुहब्बत सौंप दी
अपनी मुहब्बत सौंप दी
किसलिए वो ख्वाब देखे जिनसे कुछ हासिल न था......!
इस तरह तोड़ा मेरा दिल क्या मेरा दिल दिल न था.
जाते जाते कुछ गिला कोई शिकायत ना हुई
कोई शिकायत ना हुई,
हम भी राहों में खड़े थे पर इनायत ना हुई
पर इनायत ना हुई,
एक ठोकर ही लगाते ये तो कुछ मुश्किल न था.
इस तरह तोड़ा मेरा दिल क्या मेरा दिल दिल न था.......!"
जैसे ही मेरा गीत समाप्त हुआ कि पूरा पंडाल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा. मुझ पर तोहफों की बारिश होने लगी. जग्गू भी हमारे साथ आया था. शैव्या के इशारे पर वह मंच पर आकर तोहफे समेटने लगा. किशन जी के साथ बैठे एक मंत्री जी तो इतने खुश हुए कि उन्होंने अपने गले से कीमती चैन निकाल कर मेरी ओर उछाल दिया. मेरी इच्छा हुई कि वह चैन उठाकर मैं किशन राज के मुंह पर फेंक दूं, जिन्होंने आज मुझे बाज़ारू बना दिया था. मगर मैं ऐसा कर न पायी. अभी मैंने जो गीत प्रस्तुत किया उसके भाव और दर्द को वहां सिर्फ चार ही लोग समझ रहे थे. एक तो थे मेरे पति किशन राज, दूसरे थे मेरे गुरुदेव, तीसरी थी अहिल्या बाई और चौथी थी मेरी मुंहबोली बहन शैव्या. भले ही शैव्या अनपढ़ थी, फिर भी उसकी समझदारी पढ़ी-लिखी महिलाओं से बढ़कर थी. मेरे दर्द को महसूस कर उसकी ऑंखों से ऑंसुओं की धारा प्रवाहित होने लगी.
उसकी वेदना को नजरंदाज करती हुई मैं अब उन्मुक्त भाव से नृत्य करने लग गयी. एक नृत्यांगना के रूप में मेरी यह प्रथम प्रस्तुति थी, मगर इतनी सशक्त प्रस्तुति थी कि दर्शक दंग रह गये. सारे दर्शक घायल पंछी की तरह तड़पने लगे. आज के इस प्रथम कार्यक्रम में मैंने यह महसूस किया कि जब किसी कलाकार की आत्मा दुखी होती है तब वह अपने उत्कृष्ट कला का प्रदर्शन करता है. भले ही उसकी आत्मा रो रही हो मगर वह अपने दर्शकों को खुश रखने का ही प्रयत्न करता रहता है. मेरे नृत्य के समापन पर पंडाल से एक विकल आवाज आयी -
"हुस्नबानो, एक और गीत सुना दो." यह उसी मंत्री जी की फरमाइश थी जिन्होंने अपना चैन मुझ पर न्यौछावर किया था. अब और प्रोग्राम पेश करने की मेरी रत्ती भर भी इच्छा न थी, मगर गुरुजी ने मुझे इशारा कर दिया, इसलिए मैं मजबूर हो गयी.
"शुक्रिया मेहरबान. पेशे खिदमत है लता जी का ही दर्द भरा दूसरा गीत -
"दुनिया में ऐसा कहां सब का नसीब है....!"
"हुर्रे......!" मंत्री जी किसी थर्ड ग्रेड दर्शक की तरह उछलने लगे. उनकी उच्छृंखलता से लापरवाह मैं पूरी तन्मयता से गीत गाने लगी -
"दुनिया में ऐसा कहां सब का नसीब है
कोई कोई अपने पिया के करीब है
दुनिया में ऐसा कहां सब का नसीब है.
चाहे बुझा दे कोई दीपक सारे
प्रीत बिछाती जाए राहों में तारे
चाहे बुझा दे कोई दीपक सारे
प्रीत बिछाती जाए राहों में तारे
प्रीत दीवानी की कहानी भी अजीब है
दुनिया में ऐसा कहां सब का नसीब है,
कोई कोई अपने पिया के करीब है
दुनिया में ऐसा कहां सब का नसीब है."
इस गीत को गाते गाते मैं रो पड़ी. शैव्या मंच के नीचे खड़ी थी उसने मेरी कलाई थाम कर मुझे नीचे खींच लिया और मुझे ग्रीन रूम में ले आयी. गुरुजी भी वहां आ गये उन्हें देखकर मेरे धैर्य का बांध टूट गया.
"गुरु जी, अब मैं प्रोग्राम नहीं करूंगी "
"मगर बेटी.....!"
"नहीं गुरुजी, दवाब मत डालिए." फिर मैं शैव्या की कलाई थाम कर पीछे के रास्ते से बाहर निकल गयी. हमारे पीछे पीछे जग्गू भी था. संयोग से बाहर एक टैक्सी मिल गयी और हमलोग पंजाबी बाग से लाजपत नगर की ओर प्रस्थान कर गये.
∆∆∆∆∆
क्रमशः.........!
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