"धारावाहिक उपन्यास"

 -रामबाबू नीरव 

वसुंधरा पैलेस के एक विशिष्ट कक्ष में दुल्हन के रूप में बैठी थी मिसेज माया राज. आज सुनैना, कंचन, अमृता और अनुपमा ने मिलकर उसे नयी नवेली दुल्हन की तरह सजाया था. माया के लाख मना करने के बाद भी उन चारों ने उसकी एक न सुनी. आखिर बाइस वर्षों के वनवास के बाद माया का अपने प्रियतम से मिलन होने जा रहा था, तो दुल्हन की तरह माया को सजना ही था.

"माया....." वर्षों बाद अपने प्रियतम के इस मृदुल स्वर को सुनकर माया का अंग प्रत्यंग पुलक उठा और हृदय तंत्री झनझनाने लगी. वह पलंग से नीचे उतर आयी और जैसे ही अपने पति के चरणों में झुकी कि उन्होंने उसे अपनी बाहों में समेट लिया. -

"कहां चली गयी थी तुम?" शिकायती लहजे में पूछा किशन राज जी ने.

"आपने अपनी कोठी से भगा दिया तो मैं भाग गयी." किशन राज जी की ऑंखों में ऑंखें डालती हुई मासूमियत से बोली माया राज. 

"मामूली सी बात के लिए तुमने इतनी बड़ी सजा दी मुझे." तड़प उठे किशन राज.

"मामूली सी बात.... क्या यह मामूली सी बात है कि दुख-दर्द की मारी हुई एक स्त्री को अपनी पत्नी बनाने के बाद उसे किसी पराए पुरुष.....!"

"बस, बस करो आगे कुछ भी न कहना." किशन राज जी ने माया के मुंह पर अपनी हथेली रख दी. "अपने उस गुनाह की मुझे सजा मिल चुकी है. तुम्हारे जाने के बाद पूर्णिमा ने भी मेरा साथ छोड़ दिया."

"हां, अभय ने जब मुझे बताया कि उसकी मां गुजर गयी है तब मेरा दिल तड़प उठा. दीदी का स्नेह मुझे नहीं मिल पाया, बस इसका ही अफसोस है." माया की ऑंखों से ऑंसू बहने लगे. 

"अब उन पुरानी बातों को भूल जाओ." माया के ऑंसू पोंछते हुए किशन राज जी पाश्चाताप भरे स्वर में बोले -"तुम्हारे उदर में हमारी अमृता पल रही थी, यह तुमने बताया क्यों नहीं."

"आपने बताने का अवसर ही कब दिया?" माया मुस्कुराने लगी. उसकी इस निश्छल मुस्कान पर किशन राज मुग्ध हो गये. उसका चिबुक उठाकर उसकी ऑंखों में झांकते हुए हर्षित स्वर में बोले -"आज से तुम माया नहीं मेरी पूर्णिमा हो." 

"नहीं नहीं, मुझे इतना ऊंचा मत उठाइए स्वामी, मैं पूर्णिमा दीदी का स्थान किसी भी जन्म में नहीं ले सकती. वे आपकी अर्द्धांगिनी थी, मैं तो आपकी दासी हूं."

"सचमुच माया तुम महान हो."

"महान मैं नहीं हूं, महान तो बाबू जी है, जिन्होंने मुझ जैसी पाषाणी रूपी अहिल्या का उद्धार कर दिया."

"माया, मैंने सिर्फ पूर्णिमा और तुम्हें ही नहीं, बल्कि अभय और बाबू जी को भी बहुत दु:ख दिया है. लगता है वे मुझे माफ़ नहीं करेंगे."

"कैसी अनर्गल बातें करते हैं आप." माया मीठे स्वर में झिड़कती हुई बोली -"जब उन्होंने मुझ जैसी पाषाणी को मानवी बना दिया तब भला आपको क्षमा क्यों नहीं करेंगे. चलिए हमलोग उनका आशीर्वाद लेते हैं."

"हां चलो." वे दोनों उत्फुल्लित भाव से कक्ष से बाहर निकल गये. वहां रह गयी उन दोनों के मधुर मिलन की भीनी भीनी खुशबू.

                    *****

 सेठ धनराज जी को चार चार खुशियां एक साथ मिली. जिसकी उन्होंने कल्पना नहीं की थी वह अनमोल वस्तु माया के रूप में पुन: एक बहु मिल गयी. अपने उत्तरदायित्व से भटका हुआ उनका एकलौता पुत्र सन्मार्ग पर आ गया. पौत्र अभय राज भी सुधर गया. और सबसे बड़ी खुशी उन्हें अपनी पौत्री अमृता को पाकर हुई. अपने शयनकक्ष में वे सोफा पर बैठे हुए खुशी के ऑंसू बहा रहे थे. एकाएक उन्हें कंचन का ख्याल आ गया. जिस लड़की की बदौलत उन्हें इतनी सारी खुशियां मिली थी, यदि उसे राज खानदान से न जोड़ा गया है यह उस मासूम के साथ भारी अन्याय हो जाएगा.  कितनी कठिनाई से वे माया और कंचन को नौटंकी की जिन्दगी से मुक्त कराकर अपने प्रतिष्ठित बसुंधरा पैलेस में लेकर आए थे. अपने खानदान की बहू को मुक्त कराने के लिए उन्होंने कल्पना थियेटर के मालिक मोहन कुमार मेहता जी के पैर तक पकड़ लिये थे. उनकी इस महानता और दरियादिली को देखकर मोहन बाबू के साथ कल्पना थियेटर के सारे कलाकार रो पड़े थे. मोहन बाबू सोचने लगे थे -"आज के युग में सेठ धनराज जी जैसे लोग भी हैं, यह तो कल्पना से परे की बात है." जब माया और कंचन थियेटर छोड़कर उनके साथ आने लगी तब मोहन बाबू के साथ साथ थियेटर के सारे कलाकारों से लेकर कर्मचारी तक सुबकियां ले लेकर रोने लगे थे. माया (हुस्नबानो )और कंचन शहनाज़ तथा मीनाक्षी से लिपटकर रोने लगी थी. जब शहनाज़ की बेटी गुलनाज हुस्नबानो से लिपट कर बिलख बिलख कर रोती हुई कहने लगी -"आपा हमें छोड़कर मत जाओ" तब सेठ धनराज जी का भी कलेजा फटने लगा था.  बड़ी मुश्किल से गुलनाज को हुस्नबानो से अलग किया गया. कल्पना थियेटर के कलाकारों और कर्मचारियों का आपस में ऐसा अनुपम प्रेम देखकर सेठ धनराज जी आश्चर्यचकित रह गये थे. लोग अपने घर परिवार में भी इतने अनुराग के साथ नहीं रहते, कल्पना थियेटर  एक मंदिर जैसा लगा था उन्हें.

"पिताजी.....!" इस श्रद्धापूर्ण स्वर को सुनकर सेठ धनराज जी चौंक पड़े. उनकी नजर द्वार पर चली गयी. वहां उनका पुत्र अपनी पत्नी माया राज के साथ खड़ा अंदर आने की आज्ञा मांग रहा था -

"आओ बेटा, रूक क्यों गये?"

वे दोनों अंदर आ कर उनके कदमों में झुक गये.

"अरे रे रे.....यह क्या कर रहे हो, उठो." धनराज जी ‌ने दोनों ‌की बाहें थाम ली. प्रसन्नता से उनका हृदय प्रफुल्लित हो उठा. 

"बाबू जी, आपने सब को माफ कर दिया क्या मुझे माफ़ न करेंगे." किशन राज जी की बातें सुनकर सेठ जी आनंद विभोर हो उठे -"चुप.... चुप शैतान, नहीं तो चपत लगाऊंगा." फिर वे ठहाका मारकर हंसने लगे. किशन राज और माया का चेहरा भी खिल उठा. 

"बहू तुमने इसे समझाया या नहीं." उन्होंने माया से पूछा.

"सब समझा दिया है बाबू जी." माया भी हंसने लगी. 

"ठीक है, तुमलोग बैठो, कुछ जरूरी बातें करनी हैं." उन्होंने गंभीर रूप धारण करते हुए आदेश दिया. वे दोनों आमने-सामने बैठ गये. 

"अरी, सुनैना बेटी, जरा हमलोगों के लिए चाय तो लाना." ऊंची आवाज में सेठजी ने सुनैना को आदेश दिया.

"अभी लाई बाबूजी." सुनैना भी उनकी तरह ही चिल्लाती हुई किचन से बोली. 

"मैं लाती हूं न बाबूजी." माया उठने लगी मगर उठ न पायी. 

"तुम बैठो. " उन्होंने अधिकार पूर्ण स्वर में कहा. प्रथम बार माया को एहसास हुआ कि उस पर हुकूमत जताने वाले इस हवेली के मालिक उसके श्वसुर जी हैं. इस एहसास से उसकी ऑंखें छलछला पड़ी.

"क्या तुम्हारे दिल को चोट लगी." धनराज जी से उसके हृदय का भाव छुपा न रह सका. 

"नहीं बाबू जी, आज तो मैं निहाल हो गयी. भैय्या के स्वर्ग सिधारने के बाद इस जहान में मेरा कोई भी ऐसा न था जो मुझे डांट फटकार सके. आज मुझे ऐसा लग रहा है जैसे जीते जी मैं स्वर्ग में आ गयी हूं. खैर छोड़िए, आप क्या कहना चाह रहे हैं?" माया आंचल से अपने ऑंसू पोंछने लगी.

"किशन, आज जो हमें इतनी सारी खुशियां  मिली है, जानते हो इसके पीछे कौन है?" सेठ धनराज जी की बातें सुनकर किशन राज चौंक पड़े और चकित भाव से उनकी ‌ओर देखते हुए पूछ बैठे -"कौन है पिताजी.?"

"क्या माया ने तुम्हें नहीं बताया.?"

"नहीं तो....!" उन दोनों की नजरें माया पर टिक गयी. माया मुस्कुराती हुई बोली -

"इन्हें कुछ बताने का अवसर ही कहां मिला है ?"

"खैर नहीं बताया तो मैं ही बता देता हूं."

"वह है कंचन."

उसी समय हाथ में चाय का ट्रे लिए हुई कंचन ने भीतर कदम रखा. उसने बड़े सलीके से अपने सर पर ऑंचल रखा था. उसके पीछे सुनैना, अमृता और अनुपमा भी थी. कंचन के कानों में सेठ धनराज जी की अंतिम बात पड़ चुकी थी. वह समझ गयी दादा जी अभय के साथ उसके विवाह की ही चर्चा करने वाले हैं. उसका सम्पूर्ण शरीर रोमांचित हो उठा और ओंठ रक्तिम हो गये. सभी की नजरें उस पर ही जाकर स्थिर हो गयी. खासकर किशन राज जी तो उसे देखकर आश्चर्यचकित थे. उन्होंने कंचन को देखा ही नहीं था तो उसे पहचानते कैसे? कंचन चाय का ट्रे टेबल पर रखकर पहले धनराज जी का फिर किशन राज जी का चरण स्पर्श करके आशीर्वाद लेने के पश्चात जैसे ही माया के कदमों में झुकी कि वह बुरी तरह से चौंकती हुई बोल पड़ी -"अरे....रे....यह क्या कर रही हो तुम ?"

"कर क्या रही है, अपनी सासु मां के चरण छू रही है.!" सुनैना हंसने लगी. उसकी हंसी में अमृता की हंसी भी शामिल हो गयी.

"बेटा किशन" कुछ पल मौन रहने के पश्चात सेठ धनराज जी बोले -

"कंचन को मैं राज खानदान की छोटी बहू के रूप में पसंद कर चुका हूं. अब तुम बताओ यह लड़की तुम्हें पुत्र-वधू के रूप में पसंद है या नहीं. "

"पिताजी, आपके मुंह से निकला हुआ हर एक शब्द ब्रह्म वाक्य की तरह है. इसे कोई काट नहीं सकता." 

"बेटा, यह तो जान लो कि कंचन आखिर है कौन?"

"मुझे कुछ भी जानने की आवश्यकता नहीं है. अभय और उसकी पसंद को मुझसे अधिक आप जानते होंगे." 

उन दोनों की बातें सुनकर कंचन शर्माती हुई वहां से भाग गयी.

सभी ठहाका मारकर हंस पड़े.

"एक बात और है बेटा."

"वह क्या पिताजी?"

"रीतेश को तो तुम जानते ही हो."

"हां.... हां वही न जिसने अपना खून देकर अभय की जान बचाई थी."

"हां वही, मगर तुम यह नहीं जानते कि हमारी बहू माया रीतेश की बुआ है."

"ओह....यह तो और भी अच्छी बात है." किशन राज जी हर्षित स्वर में बोले.

"इस लड़की को देखो." धनराज जी अनुपमा की ओर इशारा करते हुए बताने लगे -"इसका नाम अनुपमा है और यह रीतेश की मंगेतर है."

"ओ हो.....! एक साथ इतनी सारी खुशियां." 

"मैं चाहता हूं कि अभय और रीतेश दोनों की शादी धूमधाम से हमारे पुश्तैनी शहर राजनगर में ही हो. राजनगर सिर्फ हमारा पुश्तैनी शहर ही नहीं बल्कि तुम्हारा राजनैतिक कार्यक्षेत्र भी है. तुम अब जनता के सेवक हो, इसलिए.....!"

"आप जैसा चाहेंगे वैसा ही होगा पिताजी." एमपी किशन राज ने अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी. अनुपमा भी इस खुशखबरी को सुनकर कंचन की तरह ही शर्माती हुई हॉल से बाहर निकल गयी. अमृता हर्ष से ताली पिटती हुई चिल्ला पड़ी -"हुर्रे.....माई ग्रेंड फादर आज ग्रेट." 

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क्रमशः............!

(अगले अंक में पढ़ें इस उपन्यास की अंतिम कड़ी.)

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