"धारावाहिक उपन्यास"
- रामबाबू नीरव
पूरे राजनगर को दुल्हन की तरह सजाया गया था. जगह व जगह आकर्षक तोड़णद्वार बने थे. वैसे तो पूरा राजनगर रंग-बिरंगे बल्बों से जगमग कर ही रहा था, लेकिन राज पैलेस की जगमगाहट का आलम ही कुछ और था. सेठ धनराज जी के एकलौते पौत्र और यहां के एमपी किशन राज जी के पुत्र अभय राज की शादी जो होने वाली थी. अभय के साथ साथ रीतेश की भी शादी उसकी मंगेतर अनुपमा के साथ होने जा रही थी. एक माह पूर्व से ही इस अनोखे शादी की धूम मची हुई थी. वैसे तो अभय राज को इस शहर का बच्चा-बच्चा जान रहा था, मगर अभय की होने वाली दुल्हन कौन है, इस रहस्य पर से पर्दा उठना अभी बाकी था. फिर भी एक उड़ती हुई हैरतअंगेज खबर को सुनकर लोगों में काना-फुसी होने लगी थी - सेठ धनराज जी ने अपने खानदान की छोटी बहू के रूप में कल्पना थियेटर की सबसे खुबसूरत नर्तकी कंचन लता को पसंद किया है. उनकी इस पसंद की जहां कुछ दकियानूसी विचार के लोग दबी जुबान में आलोचना कर रहे थे वहीं प्रगतिशील सोच और खुले विचारों के लोग उनकी इस दरियादिली की तहे दिल से तारीफ भी कर रहे थे. तारीफ करनेवालों में सबसे आगे थे मास्टर दीनदयाल जी. वही मास्टर दीनदयाल जिनके पुत्र मुकुल और पुत्री वंदना की ज़िन्दगी को बर्बाद होने से हुस्नबानो (माया) ने बचाई थी. उस दिन से ही दीनदयाल जी और उनकी पत्नी शोभा देवी हुस्नबानो के साथ साथ कल्पना थियेटर के सभी कलाकारों के मुरीद बन गये थे. हुस्नबानो तो उन दोनों पति-पत्नी की नजरों में देवी बन चुकी थी. जिस दिन कल्पना थियेटर अचानक रातों-रात इस शहर को छोड़कर चला गया था, उस दिन हुस्नबानो के विछोह में इस घर का चुल्हा तक नहीं जला था. आज जब इन लोगों ने सुना कि हुस्नबानो जो असल में मिसेज माया राज है राज खानदान की बड़ी बहू के रूप में वापस आ गयी तब इन लोगों की खुशी का ठिकाना न रहा. उस समय तो वे खुशी पागल ही हो गये, जब उनके परिवार को राज पैलेस में ले जाने के लिए खुद हुस्नबानो यानी मिसेज माया राज आलीशान गाड़ी लेकर उनके घर पर आयी थी. जब उनलोगों को लेकर माया राज पैलेस पहुंची थी तब स्वयं एमपी किशन राज ने द्वार पर आकर उनलोगों का स्वागत किया था. माया ने अपने पति से उनका और उनकी धर्मपत्नी का परिचय कराते हुए कहा था -"ये मेरे जीजू मास्टर दीनदयाल जी हैं और ये हैं मेरी भोली भाली दीदी मिसेज शोभा दयाल" खुशी से उन दोनों की ऑंखें छलछला पड़ी थी. उन्हें पूरे परिवार के साथ राज पैलेस में ही ठहराया गया था.
इस मुबारक मौके पर माया अपनी दूसरी बहन और अमृता को पालने वाली उसकी मां शैव्या तथा पिता और मामा जग्गू को कैसे भूल जाती. शैव्या जब अपने पति और भाई जग्गू के साथ राज पैलेस में पहुंची तब सबसे अधिक प्रसन्नता अमृता को हुई. वह अपनी पाल्य मां और पिताजी से लिपट कर खूब रोयी फिर उन्हें अपने दादाजी के पास ले गयी और शैव्या का परिचय कराती हुई बोली -"दादाजी, ये मेरी मां है, जिन्होंने मुझे पाल-पोस कर इतना बड़ा किया."
"आप देवी हैं , अपना चरण छूने दीजिए." सेठ धनराज जी इतने भावुक हो गये कि सचमुच वे शैव्या के चरणों में झुकने लगे. शैव्या एकदम से पीछे हट गयी और तड़पती हुई बोली -"मालिक क्यों मुझ पर पाप चढ़ा रहे हैं, मैं आपके खानदान की सेविका थी और सेविका ही रहूंगी." अमृता समझ गयी कि उसकी मां शैव्या रो पड़ेगी इसलिए वह उसे खींच कर अंदर ले गयी. जब शैव्या माया के सामने पहुंची तब दोनों एक दूसरे से लिपट कर खूब रोयी.
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दुल्हन के परिजनों के रूप में कंचन की मौसी प्रो० विभा रानी अपने पति प्रो० परेशनाथ, पुत्र अंकुर और पुत्रवधू के साथ पधारी थी. उनके साथ ही कंचन का भाई अनुराग भी आया था. अनुराग तो राज पैलेस की भव्यता को देखकर चकित रह गया. उसने सपने में भी नहीं सोचा था कि उस की दीदी इतने बड़े घर की बहू बनेगी. सेठ धनराज जी की आज्ञा से कंचन के इन रिश्तेदारों को राज पैलेस के उत्तरी भाग में ठहराया गया. चूंकि कंचन के माता-पिता स्वर्ग सिधार चुके थे इसलिए कंचन का कन्यादान प्रो० विभा रानी और उनके पति को ही करनी थी. एक तरह से राज पैलेस के इस भाग को कन्या पक्ष का घर बना दिया गया. कंचन भी विभा जी के साथ ही रहने लगी. वे पूरी तरह से मैथिल रीति-रिवाज के अनुसार मांगलिक कार्य सम्पन्न करवाने लगी. इसमें उनका सहयोग रग्घू की बेटी सुनैना कर रही थी. रग्घू और जग्गू के तो जैसे पांव ही जमीन नहीं पड़ रहे थे. वे दोनों नौकर नौकरानियों पर ऐसे हुक्म जमा रहे थे जैसे सेठ धनराज जी ने पूरा "पावर" उन दोनों को ही सौंप दिया हो.
ऐसी शुभ घड़ी में सेठजी भला कल्पना थियेटर के मालिक मोहन बाबू को कैसे भूल जाते, जिन्होंने उनके खानदान की इज्जत को बाइस वर्षों तक अपने थियेटर में महफूज रखा. शादी से दो दिनों पूर्व ही मोहन बाबू थियेटर के सभी कलाकारों के साथ राजनगर पहुंच गये. उनलोगों को दूसरी कोठी में ठहराया गया. माया और कंचन के विशेष अनुरोध पर सेठ धनराज जी ने राज पैलेस में मोहन बाबू और सभी कलाकारों को डिनर पर बुलाया. मीनाक्षी शहनाज़ तो आते के साथ कंचन से लिपट गयी. और गुलनाज हुस्नबानो (माया) से लिपट कर पहले तो खूब रोयी, फिर अपनी चुलबुली अदाओं से सब को हंसाने लगी. इस डिनर पार्टी में सेठ धनराज जी, किशन राज जी के साथ अभय और रीतेश भी शामिल हुआ.
उधर अनुपमा के घर पर उसकी शादी की धूम मची थी. चूंकि अनुपमा दयाल नर्सिंग होम की सबसे काबिल नर्स थी और डाक्टर दयाल उसे बेटी की तरह मानते थे, इसलिए उसकी शादी की सारी तैयारियां वे अपनी देखरेख में करवा रहे थे.
अभय ने अपने दादाजी से कहकर इस शहर के पुराने रइस ठाकुर ज्योतनारायण सिंह उर्फ जीतन बाबू तथा उनके मित्रों को भी आमंत्रित करवाया था. इसके साथ ही उसने अपने उन दोस्तों को भी बुलवाया जिसकी सोहबत में फंसकर वह बदनाम हो चुका था. सेठ धनराज और एमपी किशन राज के खानदान के एकलौते चिराग की शादी की सुरक्षा व्यवस्था की जिम्मेदारी सब इंस्पेक्टर ए. के. वर्मा जी को सौंपी गई थी. हालांकि वर्मा जी के दिल में कहीं एक चूभन थी, जिसके दर्द से वे अंदर ही अंदर तड़प रहे थे. कल्पना थियेटर की बेहतरीन अदाकारा मिस कंचन लता अबतक उनके दिलों दिमाग में छायी हुई थी. उसकी यादों को जेहन से निकाल पाना इतना आसान न था उनके लिए मगर दूसरी ओर उनको इस बात की खुशी भी थी कि कंचन वसुंधरा फूड प्रोडक्ट्स प्रा० लि० के मालिक सेठ धनराज जी के खानदान की बहू बन रही है. वाह रे कंचन की किस्मत....एक ही झटके में कहां से कहां पहुंच गई वह. वर्मा जी के ओठों पर एक फिकी मुस्कान उभर आयी.
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विशाल पंडाल के मंच पर दुल्हा-दुल्हन के रूप में अभय-कंचन और रीतेश-अनुपमा बैठे थे. पूरा पंडाल मेहमानों से भर चुका था. तरह तरह के पकवानों से मेहमानों का स्वागत किया जा रहा था. खुशी के इस मौके पर अभय के वे सभी दोस्त अपने अपमान को भूल कर मंच पर तरह तरह के पोजों में दुल्हा-दुल्हन के साथ फोटो खिंचवाते हुए नजर आ रहे थे.
पण्डाल से बाहर दिल्ली और मुंबई से आये हुए बैंडों की धुन पर खुशी से झूमती हुई नाच रही थी राज खानदान की एकलौती पुत्री अमृता राज और उसका साथ दे रही थी दीनदयाल जी की पुत्री वंदना. इस प्रतियोगिता में रग्घू की बेटी सुनैना भी पीछे न थी. तभी भीड़ को चीरकर उछलती कूदती हुई वहां आ गयी कल्पना थियेटर की बिंदास अदाकारा शहनाज़ और उसकी बेटी गुलनाज. शहनाज़ और गुलनाज ने ऐसा समां बांधा कि लोगों का दिल बाग बाग हो गया. उधर लड़कों की टोली ने अलग समां बांध रखा था. कंचन का भाई अनुराग, दीनदयाल जी का पुत्र मुकुल कल्पना थियेटर का मैनेजर राजीव उपाध्याय, बाबू मोशाय समीर दा और विकास आनंद का ऐसा मनमोहक नृत्य हुआ कि मोहन बाबू, पं० एस. एन. त्रिपाठी और राममूर्ति जी अपने आप को रोक नहीं पाए और उन नौजवानों के साथ ताल से ताल मिलाते हुए नाचने लगे.
"रूक जाओ....." तभी इस रौबदार आवाज को सुनकर रंग में भंग पड़ गया. -"बंद करो यह नाचना-गाना." सब की नजरें उस भारी-भरकम शख्स पर जाकर स्थिर हो गयी. भीड़ को चीरते हुए सेठ धनराज जी नाच गा रहे नौजवानों के समक्ष आकर खड़े हो गये. उनके चेहरे पर गम्भीरता छायी हुई थी. उनकी गम्भीरता को देखकर सभी सहम गये. उनके साथ उनका खानदानी सेवक रग्घू भी था. उनकी कड़कती हुई आवाज सुनकर बैंड बाजा बंद हो चुका था. बैंड बाजा के बंद होने पर अमृता के साथ नाच रही शहनाज़, गुलनाज और सुनैना के पांव भी थम गये और वे सभी हैरत से एक-दूसरे का मुंह देखने लगी. तभी भीड़ में से किसी की आवाज सुनाई पड़ी -"सेठ धनराज जी बहुत नाराज़ हैं." इस आवाज को सुनते ही अमृता और सुनैना के होश उड़ गये. खुशी के इस मौके पर दादाजी नाराज़ क्यों हो गये. वह लपकती हुई वहां आ गयी. सचमुच उसके दादाजी काफी गुस्से में नजर आ रहे थे.
"दादाजी क्या हुआ." डरते डरते उसने पूछा.
"कुछ नहीं.....आज मेरा मन भी नाचने को कर रहा है." सेठ धनराज मुक्त भाव से हंसने लगे.
"क्या.....?" अमृता और सुनयना हर्ष से उछल पड़ी. सारे नौजवान ताली पीटने लगे. पुनः बैंड बाजा बजने लगा और सेठ धनराज रग्घू के साथ ठुमके लगाने लगे. अपने दादाजी को नाचते देख कर अमृता खुद को रोक नहीं पायी और शहनाज़ तथा गुलनाज के साथ वह भी थिरकने लगी. थियेटर के सभी कलाकार तालियां बजाते हुए उनका उत्साह बढ़ाने लगे. "सेठ धनराज जी बैंड की धुन पर मस्ती से ठुमके लगा रहे हैं." जैसे ही यह खबर पंडाल में पहुंची कि लोग इस अनुपम नृत्य को देखने के लिए उस ओर दौड़ पड़े. किशन राज, माया राज, विभा जी और वर्मा जी भी वहां आ गये. अमृता की नजर अपनी मां और पिताजी पर पड़ी. वह उन दोनों को खींच कर गोल के अंदर ले आयी. माया अपने पति और श्वसुर जी के साथ नाचने को मजबूर हो गयी. भला अभय और रीतेश अपने दादाजी का अनोखा नृत्य देखने से वंचित कैसे रह जाते वे दोनों भी अपनी अपनी दुल्हन के साथ वहां आ गये. कंचन दादाजी को ठुमके लगाते देख दांतों तले अंगुली दबाने लगी. अचानक सेठ धनराज जी की नजर कंचन पर पड़ गयी. उन्होंने उसे भी बीच में खींच लिया. कंचन ने कल्पना भी न की थी कि उसे अपनी जिन्दगी ऐसी खुशी मिलेगी. उमंग की तरंग में बहकर वह भूल गयी कि वह दुल्हन है. सैकड़ों मोबाइल की फ़्लैश लाइटें चमकने लगी. वीडियोग्राफी वाले भी भला इस अनोखे नृत्य को अपने कैमरे में क़ैद करने से कैसे चुकते? अचानक किशन राज जी को लगा कि नाचते नाचते पिताजी गिर पड़ेंगे. वे नाचना छोड़कर उनके करीब आ गये और उन्हें अपनी बाहों में समेटते हुए बोल पड़े -"बस, अब रहने दीजिए पिताजी. आपने मुझे एहसास करा दिया कि संसार में अपने प्रियजनों से मिलकर जो खुशी मिलती है, उससे बढ़कर कोई खुशी नहीं हो सकती."
"हां बेटा, तुमने ठीक कहा, यही खुशी मैं तुम्हारे चेहरे पर देखना चाहता था."
"मेरे दादाजी महान हैं." अचानक अमृता हर्ष से उछलने लगी.-"आई लव यू माई ग्रेंड फादर सो मच." और इसके साथ ही वह भी अपने दादाजी और पिताजी से लिपट गयी. रग्घू, माया, कंचन, शैव्या, विभा जी तथा कल्पना थियेटर के सभी कलाकारों की ऑंखों से हर्ष के ऑंसू बहने लगे.
उधर पंडाल के बाहर खुले मैदान में जग्गू कुछ नौकरों के साथ मिलकर तरह तरह की आतिशबाजी उड़ाने में व्यस्त था. आतिशबाजियों से निकलें रंग-बिरंगे सितारों को देखकर ऐसा आभास हो रहा था, जैसे सितारे जमीं पे उतर आए हों.
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(समाप्त)
(यह उपन्यास शीघ्र ही पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित हो रहा है.)
(अगले अंक से पढ़ें मेरा प्रथम उपन्यास- "पश्यन्ती". पश्यन्ती एक तवायफ की बेटी के संघर्षों की कहानी है जो अपनी मेधा शक्ति से एक बड़े घराने की बहू बन जाती है, मगर कैसे? यह जानने के लिए इस उपन्यास को अवश्य पढ़े. खासकर युवतियों के लिए इस उपन्यास में एक संदेश है.)
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