धारावाहिक उपन्यास
- रामबाबू नीरव
खुशबू के खुबसूरत पांव जिस जगह पर पड़े वहां के विचित्र और बेढंगे माहौल को देखकर वह सर से लेकर पांव तक कांप गयी. कुछ पल के लिए तो उसे अपनी ऑंखों पर विश्वास ही न हुआ, मगर सच्चाई जो सामने थी, उससे इंकार भी नहीं किया जा सकता था. वह एक मंडी के बीच चौराहे पर खड़ी थी. मंडी, यानी बाजार ! वह बाजार, जहां हुस्न और जवानी किसी जिन्स की तरह बिका करती है. श्वेता ने महसूस किया - सैकड़ों जोड़ी ऑंखें उसके सुन्दर शरीर पर टिकी हुई है. यदि वह कुछ देर और वहां खड़ी रही तो वे कामातुर ऑंखें उसके पूरे बदन को छेद डालेंगी. लेकिन श्वेता समझ नहीं पायी कि उसकी मॉं, हां उसकी सगी मॉं सरस्वती देवी उसे इस घिनौनी जगह पर क्यों ले आयी है? मॉं तो उसे घर ले जानेवाली थी, फिर यहां.....? तभी अचानक उसकी नज़र पान की एक दुकान पर खड़े कुछ शोहदे किश्म के युवकों पर जाकर जम गयी. वे सभी उसे निगल जाने वाली नज़रों से घूर रहे थे. अचानक उन लफंगों में से एक अपनी दाईं ऑंख दबाकर बड़ी बेशर्मी से बोल पड़ा -"वाह क्या माल है यार, एकदम से तरोताजा, मेरे मुंह से तो लार टपकने लगा है."
"हुश्त.....!" उसके बगल में खड़ा दूसरा लफंगा अपनी केहूनी से उसके पेरू पर मारते हुए सिसकारी भरने लगा -"माल नहीं यार, जन्नत की हूर है यह तो. मैं तो कहता हूं कि ऐसी मलिका-ए-हुस्न तो लखनऊ की इस पूरी मंडी में न होगी."
"लगता है गुलाब बाई कोई नयी-नवेली चिड़िया फंसाकर लायी है." तीसरे युवक की बात सुनकर श्वेता को ऐसा लगा जैसे वह प्रचंड अग्नि से धधक रही भट्ठी में झोंक दी गयी हो. उसकी ऑंखों से चिंगारियां सी निकलने लगी. क्रोध से उफनती हुई वह उन आवारागर्द युवकों को कुछ खड़ी खोटी सुनाने जा ही रही थी कि टैक्सी का किराया चुका कर उसकी मां एकबारगी उसकी ओर पलट गई और उसकी कलाई पकड़ कर आगे की ओर खींचती हुई बेहद मीठे स्वर में बोली -"श्वेता, बेटी जल्दी चलो यहां से."
"कहां....?" तल्ख़ आवाज में पूछा श्वेता ने.
"अपने घर और कहां?" सरस्वती देवी का स्वर कांप रहा था और चेहरे पर झु़ंझलाहट का भाव उभर आया. उसकी घबराहट इतनी बढ़ गयी कि ललाट पर पसीने की बूंदें चमकने लगी. इस बदनाम बस्ती में आने के बाद श्वेता के मन में जो अन्तर्द्वन्द उठ खड़ा हुआ था, उसकी सनसनाहट उसे स्पष्ट सुनाई दे रही थी. श्वेता नादान न थी, बाइस वर्ष की पूर्ण युवती थी वह. दिल्ली में रहकर ग्रेजुएशन के साथ साथ नृत्य, गीत और संगीत की भी उच्च कोटि की शिक्षा प्राप्त कर चुकी थी. इस बदनाम बस्ती की गंदे माहौल को देखकर अपनी मॉं के प्रति जो क्षोभ उसके मन में उत्पन्न हुआ था, उसकी स्पष्ट छाप उसके चेहरे पर नजर आने लगी.
"लेकिन यह जगह तो....?" उसके मुंह से अस्फुट सा स्वर निकला.
"देखो बेटी यह चौराहा है, सारी बातें यहां नहीं हो सकती, तुम चलो यहां से. यहां पर सिर्फ लोफर किश्म के छोकड़े रहते हैं." सरस्वती देवी श्वेता के तेवर देखकर बुरी तरह से डर गयी. सच्चाई जानकर कहीं उसकी बेटी बीच चौराहे पर ही कोई हंगामा खड़ा न कर दे. वह श्वेता को अब लगभग घसीटने लगी. श्वेता की इच्छा हुई कि वह अपनी कलाई छुड़ाकर यहां से भाग जाए. मगर भीड़भाड़ वाली इस जगह पर उसे तमाशा बनना मंजूर न था. अतः चुपचाप वह सरस्वती देवी के साथ चलने को विवश हो गई. उसके कदम लड़खड़ा रहे थे, सर चकरा रहा था और हृदय में उठे भयंकर तूफान के थपेड़े खाती हुई वह सोच रही थी -" आखिर वह है कौन और उस लफंगे ने जिस गुलाब बाई का नाम लिया था, वह गुलाब बाई कौन है? कहीं सरस्वती देवी ही तो....! नहीं नहीं ऐसा नहीं हो सकता....वह बचपन से अपनी मॉं को जानती है. उसकी मॉं गुलाब बाई नहीं हो सकती."
सरस्वती देवी उसे लिए हुई एक तंग गली में मुड़ गयी और अठारहवीं शताब्दी की याद दिलाने वाली एक इमारत की सीढ़ियां चढ़ती चली गयी. सीढ़ियां जहां खत्म हुई वहां बड़ा सा एक हॉल नजर आया. लम्बे चौड़े इस हॉल में बेशकीमती ईरानी कालीन बिछा हुआ था. तीन ओर गद्देदार बिछावन पर गांव, तकिया और मसनद सलीके से रखे थे. छत से मनमोहक झाड़-फानुस लटक रहे थे. श्वेता की दृष्टि पश्चिम की ओर चली गयी, जहां तवायफों के कोठों पर बजने वाले पारंपरिक वाद्ययंत्र रखे थे. वहीं पर रखी हुई एक तिपाई पर चांदी की तश्तरी, चांदी का इत्रदान और फूलों के गुलदस्ते बड़े ही कलात्मक ढंग से सजे थे. उत्तर की ओर एक पारदर्शी लम्बा पर्दा झूल रहा था. पर्दे के उस पार श्वेता की हम उम्र कुछ अन्य लड़कियां आपस में हंसी ठिठोली कर रही थी. उनमें से कुछ समीज-सलवार तो कुछ नाइटी पहने हुई थी. श्वेता और उसकी मॉं के आने की आहट सुनकर वे सभी लड़कियां चौंक पड़ी और उस पार से ही उन दोनों को कौतूहल पूर्ण नजरों से देखने लगी. उस तरफ एक और सीढ़ी थी, जो बाल कॉनी की ओर चली गई थी. ऊपर बड़े-बड़े चार कमरे श्वेता को नजर आए. उन कमरों की खिड़कियों तथा दरवाज़ों पर कीमती पर्दे झूल रहे थे. बालकानी से हटकर श्वेता की दृष्टि एकबार फिर पर्दे के उस पार खड़ी युवतियों पर जाकर स्थिर हो गयी. उन युवतियों का शारीरिक सौष्ठव आकर्षक था. मुखमंडल पर हास्य की आभा थिरक रही थी. वे सब की सब सुन्दर भी थी, परंतु जो अप्रतिम सौंदर्य श्वेत का था, वैसा उन सबों में से एक का भी न था. उन लड़कियों के हाव-भाव कुछ ऐसे थे जिन्हें देखकर श्वेता को पूर्ण विश्वास हो गया कि वह सचमुच किसी तवायफ के कोठे पर ले आई गई है. अब वह हॉल के बीचोबीच खड़ी थी.
"रूक क्यों गयी बेटी, ऊपर वाले कमरे में चलो." सरस्वती देवी उस पर स्नेह सुधा बरसाती हुई कोमल स्वर में बोली.
"छोड़ मेरी कलाई, मैं नहीं जाऊंगी ऊपर." एक झटके में अपनी कलाई छुड़ाकर श्वेता दहकती हुई ऑंखों से सरस्वती देवी को घूरती हुई तीखे स्वर में बोली -"'सच सच बता, तू कौन है.?" श्वेता की दहकती हुई ऑंखों का सामना सरस्वती देवी न कर सकी. उसका सर किसी अपराधी की तरह झुक गया. सर्वांग कांप उठा और उसके पूरे शरीर से पसीने छूटने लगे. वह समझ नहीं पा रही थी कि श्वेता को सच का एहसास कैसे कराया जाए. ?
उसे खामोश देखकर श्वेता का क्रोध सातवें आसमान को छूने लगा.वह लगभग चीख पड़ी -"तुम चुप क्यों हो, बोलती क्यों नहीं?" अपनी बेटी के इन कटु वचनों को सुनकर सरस्वती देवी को ऐसा लगा जैसे वह जीते-जी मर गई हो. जैसे तैसे उसने अपने कलेजे को मजबूत बनाया और श्वेता की ऑंखों पर से भ्रम का आवरण हटाती हुई आर्द्र स्वर में बोली -
"श्वेता.....यह सच है कि तू मेरी बेटी है और मैं तुम्हारी सगी मॉं हूं मगर इसके साथ ही यह भी सच है कि जहां मैं तुम्हारी मॉं सरस्वती देवी हूं, वहीं इस मंडी की मशहूर तवायफ गुलाब बाई भी हूं."
"ओह.....इतना बड़ा छल." श्वेता अपनी हकीकत जानकर असह्य पीड़ा से तड़प उठी. और फटी फटी ऑंखों से अपनी मॉं सरस्वती देवी को घूरती हुई दर्द भरे स्वर में बोली -"यानी कि तू एक वेश्या है और मैं तुझ जैसी गलीज औरत की बेटी हूं." श्वेता को महसूस हुआ, जैसे उसके शरीर की सारी शक्ति क्षीण होती जा रही हो. और पांव बुरी तरह से लड़खड़ाने लगे हों.
"हां..... हां.... वेश्या हूं मैं और तू इस इस वेश्या यानी कि एक रंडी की बेटी है."अपनी बेटी की तीखी बातें सुनकर तड़प उठी गुलाब बाई.
"नहीं....."श्वेता के मुंह से एक मर्मांतक चीख निकली और वह धराम से फर्श पर गिर पड़ी. गुलाब बाई अपनी बेटी की ऐसी हालत देखकर बुरी तरह से घबरा गई और उसके अचेत शरीर पर सर पटक पटक कर विलाप करने लगी.
"श्वेता, मेरी बच्ची ऑंखें खोलो." तब-तक पर्दे के पीछे से सारी लड़कियां निकल कर वहां आ चुकी थी और उन दोनों को घेरकर खड़ी हो गयी. इस घटना को देखकर उन लड़कियों पर कुछ खास प्रभाव नहीं पड़ा. हुस्न की इस मंडी में इस तरह की घटनाएं आम बात थी. जब भी कोई मासूम लड़की यहां आती तब यहां के माहौल को देखकर अचेत हो जाती. हां, आज की इस घटना में खास बात यह थी कि यहां आने वाली यह नयी लड़की गुलाब बाई की अपनी बेटी थी. श्वेता को गुलाब बाई ने बचपन से ही इस माहौल से दूर रखा था. अपनी बेटी को छुपाकर रखने के पीछे मंशा क्या थी, यह तो गुलाब बाई ही जाने.
"अम्मा....." शबाना नाम की एक लड़की गुलाब बाई के कंधे पर हाथ रखती हुई सांत्वना देती हुई बोली -"श्वेता बेहोश हो गई है, इसे ऊपर ले चलो."
"तुम सब तमाशा क्या देख रही हो, उठाओ मेरी बेटी को." गुलाब बाई वहां खड़ी लड़कियों को झिड़कती हुई बोली. सभी ने मिलकर श्वेता को उठा लिया और सीढ़ी की ओर बढ़ गयी.
*****
श्वेता पलंग पर लेटी हुई दीवार की ओर मुंह करके अपने दुर्भाग्य पर बेसुमार ऑंसू बहाए जा रही थी. गुलाब बाई नाम की इस मनहूस औरत ने उसके सारे सपने को ध्वस्त कर दिया. पल भर में ही वह क्या से क्या बना गयी. अब तक वह यही समझती आयी थी कि वह किसी संभ्रांत परिवार की बेटी है मगर यह चुड़ैल जो खुद को उसकी मां कहती हैं, निकली एक तवायफ. जब उसकी मां तवायफ है, तब उसका बाप कौन होगा, यह तो स्वयं इस चुड़ैल को भी पता न होगा.?
"श्वेता....?" गुलाब बाई ने भर्राए हुए स्वर में उसे पुकारा. मगर श्वेता न तो उसकी ओर पलटी और न ही कुछ बोली. हां उसका क्रंदन पहले से कुछ और तीव्र अवश्य हो गया. गुलाब बाई व्यग्र हो उठी और पलंग के पुश्त पर सर पटक पटक कर विलाप करने लगी.
"अम्मा हिम्मत से काम लो." शबाना उसे संभालने लगी.
"हिम्मत..... कहां से लाऊं इतनी हिम्मत, आज मेरी बेटी ही मुझसे नफ़रत करने लगी है."
"चुप बेहया.... बेगैरत औरत." एकाएक श्वेता उठकर बैठ गयी और ऐसे ऐसे कटु वचन बोलने लगी कि गुलाब बाई का कलेजा छ्लनी हो गया. -"मैं तुम्हारी बेटी नहीं हूं. अपना भला चाहती है तो यहां से चली जा. जा, दूर हो जा मेरी नज़रों के सामने से. नहीं तो मैं तुम्हारा मुंह नोंच लूंगी." सचमुच स्वेता रणचंडी बन गयी. उसका ऐसा विकराल रूप देखकर गुलाब बाई की हालत तो पस्त हो ही चुकी थी, शबाना भी दंग रह गयी. शबाना ने मन ही मन सोचा -"इस समय श्वेता को अधिक कुरेदना उचित न होगा." वह गुलाब बाई का हाथ पकड़ कर बोली -"अम्मा अभी श्वेता को कुछ मत कहो, चलो यहां से." असह्य पीड़ा से तड़पती हुई वह शबाना का सहारा लेकर कमरे से बाहर निकल गयी.
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क्रमशः........!
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