“पुस्तक दिवस का पराभव”
(विश्व पुस्तक दिवस विशेष)
✍️ डॉ. मुकेश असीमित
विश्व पुस्तक दिवस कहे के लिए ,अरे भाई इसलिए नहीं कि लोग किताबें पढ़ेंगे, बल्कि इसलिए कि सेल्फ़ी खिंचवाने के लिए कुछ किताबों की ज़रूरत पड़ेगी। इंस्टाग्राम पर हैशटैग चल रहा है — #बुकलवरफॉरएवर — और नीचे कमेंट में लिखा है, "बचपन में 'चाचा चौधरी' पढ़ी थी, वही बेस्ट थी!"
एक ज़माना था जब किताबें पढ़ते थे, चाटते थे, सीने से लगाते थे, भाई-बहन की लड़ाई में एक-दूसरे के सर पर मारने के काम भी आती थीं। पर अब हाल ये है कि किताबें वही करती हैं, जो टीवी के रिमोट से बाहर कर दिए गए चैनल करते हैं — मौन तपस्या। कभी किताबें अलमारी में रखी जाती थीं, अब मोबाइल में ‘बुकमार्क’ हो गई हैं। और बुकमार्क भी ऐसा कि आधा चैप्टर पढ़ने के बाद ज़िंदगी भर वहीं पड़ा रहता है, जैसे किसी सरकारी योजना का पहला ड्राफ़्ट।
आ गया है दिन आज — फेसबुक पर स्टेटस लगाने का — “आज इस महान दिन पर ‘सत्य के प्रयोग’ को याद किया जा रहा है...” और उसके साथ हैरी पॉटर का कोई कवर लगा देंगे।
किताबों की व्यथा ये है कि अब उन्हें पढ़ा नहीं जाता, बल्कि कोट किया जाता है — और वह भी तब, जब किसी को लव लेटर लिखना हो या फेसबुक पर गंभीर विचारक बनने का प्रयास करना हो।
पूरा बचपन किताबों के साथ आँख-मिचौली खेलते-खेलते निकल गया। जवानी भी कुछ यूँ ही, किताबों के साए में मुँह छुपाकर किसी नुक्कड़ से निकल गई। किताबों के साथ जुड़ी यादें ऐसी हैं कि हर किसी की थोड़ी-बहुत मिलती-जुलती ही लगती हैं — जैसे हर घर में एक 'रामू काका' ज़रूर होता है, वैसे ही हर बचपन में 'चंपक', 'नंदन', 'पराग', 'चाचा चौधरी' और 'बिल्लू' ज़रूर होते थे।
गाँव में बच्चों का एक गैंग होता था — कोई गैंगवार नहीं, 'बुकवार' चलती थी। कोई 'चंपक' लाया, तो किसी के पास 'पराग' थी। एक्सचेंज होता, व्यापार चलता — और उस समय का हमारा शेयर मार्केट था — 10 पैसे में एक दिन की कॉमिक्स किराए पर!
फिर एक दिन किराया 25 पैसे हुआ। पर हम भी कहाँ हार मानने वाले थे? 25 पैसे में 10 बच्चे मिलकर पढ़ते थे। एक पढ़े, फिर दूसरे को दे, फिर तीसरे को — आख़िर किताबें भी तो 'पब्लिक प्रॉपर्टी' होती थीं, कम से कम बच्चों के लिए।
थोड़े बड़े हुए तो ‘थ्रिल’ की तलाश में पहुँचे गुलशन नंदा, वेद प्रकाश शर्मा,सुरेन्द्र मोहन पाठकओम प्रकाश शर्मा,कर्नल राजपूत, राकेश और चंद्रकांता संतति तक।। पढ़ने की भूख इतनी थी कि तकिये के नीचे किताब छुपाकर, दीपक की रोशनी में पढ़ते-पढ़ते कब भोर हो जाती, पता ही नहीं चलता था। बिजली जाती नहीं थी — थी ही नहीं!
और फिर आया 'भूतनाथ' का ज़माना। पिताजी ने जब वह मोटी-सी किताब लाकर दी — “सिर्फ़ देखना, पढ़ना नहीं अभी” — तो वही हमारे लिए प्रतिबंधित फल बन गई। ‘भूतनाथ’ जैसे ही हाथ में आई, हम 10 दिन तक भूतोन्मुखी अवस्था में रहे।
गाँव में न टीवी, न सिनेमा — बस किताबें और पत्रिकाएँ ही मनोरंजन की एकमात्र मशीन थीं। कोर्स की किताबें भी थीं, लेकिन उनका हाल बस इतना था कि स्कूल से आते ही, बिना देखे, बस्ता सीधा फेंकते थे — अलमारी के कोने में। फिर घर से निकल जाते थे खेलने, और बस्ता वहीं पड़ा रहता था — बेसुध, बेबस और बेचारा, हमारी घरवापसी का इंतज़ार करता हुआ।
याद है न वो बचपन के दिन...! किताबों को लाल-नीले पेन से अंडरलाइन करने के चक्कर में पूरी किताब को पिकासो की पेंटिंग में तब्दील कर देना। नीलकंठ के पंख और मोरपंख को किताबों के बीच में रखना — ये बुकमार्क के लिए नहीं, बल्कि विद्या माता के आह्वान के लिए था कि, "हे विद्या माता! आपसे प्रार्थना है — कृपया पधारिए, और जो कुछ भी हमने पढ़ा है, उसे रात को हमारे ललाट पर स्वयं आकर लिख जाइए!"
इन्हीं मोरपंखों और नीलकंठ के पंखों के लिए दिनभर खेत-खलिहानों में दौड़ लगाना पड़ता था — बस इसलिए कि पढ़ाई में कृपा बनी रहे, और परीक्षा में देवी माँ की विशेष नज़र हमारे उत्तरपुस्तिका पर टिकी रहे।
होमवर्क की चीख-पुकार, मास्टर जी की दहाड़ — "कल अगर होमवर्क नहीं दिखाया तो मुर्गा बना दूँगा!" — मगर हमारी ‘पुस्तक-नीति’ ये थी कि जब तक पहली बेल नहीं बजती, किताब हाथ नहीं लगती। शुक्र मनाइए उस समय सरकार ने "लावारिस वस्तुओं को हाथ न लगाएँ" जैसी कोई चेतावनी नहीं जारी की थी, वरना हम भी सरकार की बात मानकर कभी बस्ते को हाथ न लगाते।
कॉलेज पहुँचते ही किताबों से रिश्ता और गहरा हुआ। एमबीबीएस में कम से कम 50 किताबें तो पढ़ ही डालीं — और वो भी पूरी निष्ठा से, क्योंकि पढ़े बिना रिज़ल्ट नहीं आता था। एक-एक विषय की अलग किताब। पीजी में जब कैंपबेल जैसी किताबें ख़रीदने की बारी आई, तो पहली बार समझ आया कि “ज्ञान महँगा होता है”। 10 हज़ार की किताब का फोटोकॉपी संस्करण 3 हज़ार में आता था — और उसी से हमने गंगा स्नान कर लिया।
आज देखता हूँ अपने बेटे को — एमबीबीएस में बस 2-3 किताबें। पीजी में भी वही हाल। बाक़ी सब मोबाइल, लैपटॉप और वीडियो लेक्चर में सिमटा हुआ। किताबें जैसे स्मृति शेष बन चुकी हैं — जैसे पुरानी प्रेमिकाएँ, जिन्हें अब सिर्फ़ फेसबुक स्टेटस में याद किया जाता है।
“मुझे लगता है कि कोर्स की किताबें चाहे ज़बरदस्ती ही क्यों न पढ़ी जाएँ, लेकिन उनसे एक आत्मीय रिश्ता बनता है। किताबों की ऊँगली पकड़कर जो ज्ञान की पगडंडी शुरू होती है, वही साहित्यिक गलियों तक पहुँचती है। सिरहाने रखी किताब, गोद में रखे हुए पढ़ने का एहसास — आज के टैबलेट और ई-पुस्तक से कहाँ मिल पाता है!
फ़िल्मों में भी किताबों का क्या अद्भुत उपयोग होता था — नायिका किताब लेकर कॉलेज में शर्माते हुए घूमेगी, और जैसे ही किताब ज़मीन पर गिरेगी, नायक अवतरित होगा — "हाय, मैं लुट गया!" वाला भाव लेकर। वहीं से प्रेम का पहला अध्याय शुरू होता था।
कहाँ गए वो दिन जब प्रेमिकाएँ प्रेमियों के “ लिखता हूँ पत्र खून से स्याही न समझना “ लिखे प्रेमपत्र किसी किताब के पन्नों में छुपाकर रखती थी !
अब किताबें न बस्तों में हैं, न दिलों में। हाँ, डिजिटल पुस्तक-शृंखला ज़रूर सजाई जा रही हैं — ताकि 'ज़ूम कॉल' के पृष्ठभूमि में पढ़े-लिखे लग सकें। बाक़ी किताबें… अब भी इंतज़ार कर रही हैं…
कि कोई फिर से पन्ने पलटे… और कहे —
“किताबों, तुम ही थीं मेरी पहली दोस्त!”
कसम विद्या माता की — किताबें न होतीं, तो शायद हम भी न होते — कम से कम 'डॉ' तो हरगिज़ नहीं होते! 📚😄
पुस्तक दिवस अब "पुस्तक स्मृति दिवस" हो चला है।
आइए, इस विश्व पुस्तक दिवस पर हम सब मिलकर कम से कम इतनी कसम खाएँ —
कि अगली बार किताब ख़रीदने के बाद उसकी केवल 'सेल्फ़ी' न लें,
दो पन्ने पढ़ भी लें —वरना किताब भी यही कहेगी —
“तेरी गलियों में न रखेंगे क़दम आज के बाद?”
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