पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही सामाजिक, सांस्कृतिक मूल्यों, विश्वासों, रीति-रिवाजों और प्रथाओं की निरंतरता का प्रतिनिधित्व करने वाली मानवीय गतिवधियों को ही ‘परंपरा’ कहा जाता है । ‘परम्परा’ मूलतः एक संस्कृत शब्द है । हलाकी यह पाली, प्राकृत और हिन्दी में भी अपने इसी स्वरूप में व्यवहृत होता है । इसका अर्थ, - ‘रीति-रिवाजों का अनुसरण करना, विरासत से प्राप्त को नियमित उतराधिकार के रूप में सौंपना, क्रमिक दोहराना आदि होता है ।’ श्रीमद्भागवत के चतुर्थ अध्याय के दूसरे श्लोक में वर्णित है, - “एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः” अर्थात, - ‘इस तरह परम्परा से प्राप्त इस कर्मयोग को राजर्षियों ने जाना ।’
इस प्रकार परंपरा का आशय समाज में विरासत से प्राप्त मानवीय रीति-रिवाजों, क्रिया-कलापों, अनुष्ठानों, प्रथाओं और विश्वासों से है, जो किसी भी समाज या समुदाय के इतिहास और संस्कृति में नैतिक मूल्यों के आधार पर निर्मित हुआ करती हैं । परंपरा समाज के केंद्रीय गुण हुआ करते हैं । सामान्य शब्दों में, परंपरा को मानवीय व्यवहार का तरीका कहा जा सकता है । परंपरा, धार्मिक, सामाजिक या सांस्कृतिक हो सकती हैं, जिससे उस विशेष समाज की पहचान मिलती है । इसमें निहित तत्व या अवधारणाएँ अक्सर समाज और व्यक्ति को सुदृढ़ता, निश्चिंतता और स्थिरता प्रदान करते हैं । परंपराएँ किसी मानवीय समुदाय को एकता के सूत्र में बाँधने और उनकी एक साझा पहचान देने में मदद करती हैं । इसमें हमारी आध्यात्मिकता, भावनात्मकता, परस्पर प्रेम-भाईचारा आदि तत्व प्रबल होते हैं । फलतः इसको मानने और सम्पादन संबंधित कुछ सामाजिक बाध्यता भी अवश्य ही जुड़ जाती है, जिससे सामाजिक विकास और एकता सुदृढ़ बने रहते हैं । इसके बिना समाज पंगु-सा दिशाहीन बन जाता है और उसे विशृंखलित हो जाने का भय बना रहता है ।
परंपरा, एक महत्वपूर्ण मानवीय अवधारणा है, जो समाज, संस्कृति और ज्ञान को प्रभावित करती है । परंपरा, ज्ञान का एक पुंज है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ता है और समाज की पहचान तथा उसके मूल्यों को बनाए रखता है । स्कॉटिश विश्वविद्यालय के मनोवैज्ञानिक और शिक्षाविद प्रोफेसर जेम्स ड्रीवर (1873-1950) ने परंपरा के संदर्भ में कहा है, - “परंपरा कानून, प्रथा, कहानी और किंवदंती का वह संग्रह है, जो मौलिक रूप से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक हस्तांतरित किया जाता है ।” परंपरा संबंधित इसी तरह के विचार लिथुआनिया (रूस) के प्रमुख समाजशास्त्री मौरिस जिंस बर्ग (1889-1970) के भी रहे हैं । उनका कहना है, - “परंपरा का अर्थ उन सभी विचारों, आदतों और प्रथाओं का योग है, जो व्यक्तियों के किसी एक विशेष समुदाय से संबंधित होते हैं और एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक हस्तांतरित होते रहते हैं ।” भारत के प्रमुख समाजशास्त्री डॉo श्यामाचरण दुबे (1922-1996) ने भी कहा है, - “परंपरा, सामुदायिक ज्ञान, मूल्यों, व्यवहारों और विश्वासों का एक ऐसा संग्रह है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होता है और समाज के सदस्यों के व्यवहार और दृष्टिकोण को आकार-प्राकार देता है ।” जबकि जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली, के ‘सामाजिक पद्धति अध्ययन केंद्र’ के संस्थापकों में से एक प्रमुख समाजशास्त्री प्रो० योगेंद्र सिंह (1932-2020) के अनुसार, - “परंपरा किसी समाज की संचित विरासत है, जो सामाजिक संगठन के सभी स्तरों पर छाई रहती है, जैसे मूल व्यवस्था, सामाजिक संरचना और वैयक्तिक संरचना ।” स्कॉटलैंड के प्रमुख समाज शास्त्री एंड्रयू रॉस का मानना है कि - “परंपरा का अर्थ है, चिंतन और विश्वास करने की पद्धति का हस्तांतरण ।”
परम्पराएँ सामाजिक जीवन में एकरूपता को लाती हैं । उन्हें सुगम बनाती हैं । व्यक्ति के सामाजीकरण में अपना विशेष योगदान देती हैं । मानवीय व्यवहार को अनुशासित कर उन्हें नियंत्रित करती हैं । उनको सामाजिक सुरक्षा प्रदान करती है । इस प्रकार परंपराएँ सामाजिक तनाव को कम कर सामाजिक विकास की दिशा को निर्धारित करती हैं ।
परंपरा को अधिकांश लोग अपरिवर्तनशील मानते रहे हैं । लेकिन ऐसा नहीं है । जैसा कि ऊपर बताया गया है । कोई भी समाज या उसकी परंपरा अपनी पूर्व स्थिति या स्थिरता को बनाए रखने के लिए, पहले तो वह किसी भी नवाचार का भरपूर विरोध करती है । लेकिन फिर वह उस नवाचार से धीरे-धीरे अभ्यस्त हो जाती है और उसे अपने में समाहित कर लेती है । जैसे कि रेलगाड़ी में सफर के समय, पहले से सवार यात्रीगण, आगंतुक यात्री का भरपूर विरोध करते हैं, लेकिन कुछ ही समय के बाद वह आगंतुक यात्री भी उस यात्री-समाज की माँग के अनुरूप अपने में कुछ परिवर्तन कर उसमें अपना स्थान बना लेता है और फिर वह भी उसका एक हिस्सा बन जाता है । फिर तो वह भी उस यात्रा संबंधित दु:ख-सुख में शामिल होकर एक हो जाता है । यही रीति आज शहरी कॉलोनी जीवन संस्कृति में भी परिलक्षित होता है । यहाँ तक कि कुछ पशु और जीव-जंतुओं के समाज में भी ऐसा ही दृष्टिगोचर हुआ करता है ।
परंपरा या पारंपरिक जीवन-शैली के कई फ़ायदे होते हैं, जैसे कि सामुदायिक जीवन के कारण पारिवारिक निश्चिंतता, तनाव रहित जीवन, बड़े से बड़े कार्य का विभाजन कर परस्पर मेल-जोल से उसे संपादित करना, पारिवारिक मजबूती, आर्थिक समृद्धि, शत्रुओं या जंगली जानवरों से सुरक्षा, आध्यात्मिक संतुष्टि का अनुभव, आदि । इससे पारिवारिक और सामाजिक उन्नति में बहुत सफलता मिलती है । परस्पर प्रेम की भावना विकसित होती है । किसी की अस्वस्थता या अनुपस्थिति की स्थिति में भी पारिवारिक या सामाजिक कार्य बाधित न होता है, बल्कि वह निरंतर गतिशील ही बना रहता है । स्थानीय प्राप्त उत्पादनों का सेवन करने से खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित होती है । इससे धन की अपव्ययता को रोका जा सकता है । सामूहिक क्रिया-कलाप भावी पीढ़ी को परस्पर सहयोगी, मितव्ययी, सबको सम्मान और प्रेम प्रदान करने वाले अनुभवी और सुसंस्कृत नागरिक बनाती है, जिस पर पूरा समाज और देश गर्व महसूस करता है । परंपरा का पालन कर दिखावे की व्यर्थ संस्कृति, उपभोक्तावादी व्यर्थ खर्चों और बुरी आदतों से बचा जा सकता है ।
लेकिन इसके साथ ही परंपरा या परंपरागत जीवन-शैली से हानि के भी कई स्वरूप दिखाई देते हैं । परंपरागत जीवन-शैली और कार्य-विधि में व्यक्तिगत विकास को प्रश्रय नहीं मिलता है, जिस कारण पारिवारिक या सामुदायिक सदस्यों में घुटन भरी जिंदगी और उनके मन में दबी इच्छाएँ निरंतर कुंठित होती रहती हैं, जो किसी अप्रस्फुटित ज्वालामुखी की तरह अंदर ही अंदर सुलगती रहती हैं । निज इच्छानुरूप व्यक्ति न तो स्वयं का और न, ही अपने बाल-बच्चों को शिक्षा और दिशा ही दे पाता है और न, उन्हें समुचित विकसित ही कर पाता है । एक ही प्रकार के नियमित भोजन, पहनावा, जीवन-शैली आदि व्यक्ति को लगभग स्थिर स्थावर-सा बना देते हैं । परस्पर प्रतिस्पर्धा की भावना भी लगभग समाप्त हो जाती है । व्यक्ति अकेले कुछ भी निर्णय ले पाने में सक्षम नहीं हो पाता है । स्वनिर्भरता के स्थान पर, घर के मुखिया पर सभी आश्रित हो जाते हैं । ऐसी स्थिति में परस्पर अन्तः कलह और कई प्रकार की मानसिक बीमारियाँ हो जाना स्वाभाविक ही है । फिर पारिवारिक जिम्मेवरियों की बोझ तले दबकर अधिकांश बच्चें युवा होने से पहले ही प्रोढ़ और फिर शीघ्र ही वृद्ध की श्रेणी में आ जाते हैं ।
लेकिन समयानुसार समाज में आधुनिक स्वरूप के अनुकूल आवश्यक बदलाव होते ही रहते हैं और उन्हीं के अनुरूप कुछ परंपराओं के मूल्य कमज़ोर भी पड़ने लगते हैं । कालांतर में उनके नैतिक महत्व घटने लगते हैं । फिर एकदम समाज से गायब ही हो जाते हैं या उनके स्वरूप में कोई बड़ा परिवर्तन हो जाता है । जैसे कि ब्याह-शादी में ‘डोली या पालकी’ की प्रासंगिकता । एक समय था, जब डोली या पालकी, ब्याह-शादी के प्रतीक हुआ करते थे । दूल्हा-दुल्हन के आवागमन डोली या पालकी से ही हुआ करते थे । कारण; ब्याह-शादियाँ, कुछ कोस की दूरी पर हुआ करती थीं , खेत-खलिहान, नहर-पइन, पगडंडियाँ युक्त राहे थीं, दूर-दराज में सड़कों और उस पर चलने वाली गाड़ियों-साधनों की कमी हुआ करती थीं, लोग सिर पर भार उठाए पैदल चलने के लिए अभ्यस्त हुआ करते थे, आदि । सबसे बड़ी बात तो यह है, कि लोगों के पास अनाज-संपदा तो होते थे, परंतु उनके पास नगद पैसों का सर्वदा अभाव हुआ करता था । फलतः ब्याह-शादी में डोली या पालकी का ही अधिक प्रचलन हुआ करता था । परंतु वर्तमान में अतिशय पैसों की उपलब्धता, दूर-प्रान्तर में ब्याह-शादियाँ, आवागमन के लिए उन्नत सड़कें और साधनों की प्रचुरता, शारीरिक सुकुमारता आदि के कारण अब ‘डोली या पालकी’ की प्रथा, समाज से गायब ही हो गई है । उसके स्थान को गतिशील मोटर गाड़ियाँ या फिर यातायात के अन्य आरामदायक साधनों ने ले लिया है । आज भी यदि आप डोली-पालकी या फिर बैलगाड़ी-घोड़ागाड़ी से सैकड़ों मील दूरी की यात्रा करना चाहते हैं, तो करिए । लेकिन यह आपके लिए खतरों से युक्त होगा और आपके पिछड़ेपन की निशानी ही होगी । इसी तरह ज्यादा नहीं, तो करीब आठ-दस दशक पूर्व संयुक्त परिवार की अवधारणा ही किसी भी परिवार की उच्च सामाजिकता तथा संपन्नता का परिचायक हुआ करता था । परंतु अब शहरीकरण और वैश्वीकरण संस्कृति के कारण संयुक्त परिवार की संस्कृति या अवधारणा लगभग क्षीण हो गई है । उसके स्थान पर मुक्त जीवन यापन संबंधित एकल परिवार और ‘फ्लैट-संस्कृति’ की अवधारणा बहुत ही तेजी से फलीभूत हो रही है ।
अब बातें करते हैं, आधुनिकता पर । समयानुसार मानवीय माँगों के अनुरूप वैज्ञानिक उन्नति से मानवीय और सामाजिक जीवन में हो रहे परिवर्तनों तथा उसके अनुकूल जीवन साधने की नई क्रिया-कलापों को ‘आधुनिकता’ कहा जाता है । मानव जीवन में आगत नई चुनौतियों और अवसरों के जवाब में आवश्यक परिवर्तन, नवाचार और प्रगति ही आधुनिकता है । आधुनिकता, नए युग से जुड़े नए विचारों, नए मूल्यों और नए सुगम प्रथाओं का प्रतिनिधित्व करती है । इसका स्वरूप प्रगतिशीलता, तर्कसंगतता, वैज्ञानिकता, व्यक्तिवादिता और तकनीकी उन्नति के साथ ही सब कुछ एकदम नया होता है । आधुनिकता का मतलब है, पुरानी, रूढ़िवादी मान्यताओं और विचारों से हटकर नए, तर्कसंगत और खुले दृष्टिकोण को अपनाना । इसमें भावनात्मकता की कोई गुंजाइश नहीं रहती है, बल्कि यह पूर्णरूपेण बौद्धिकता के आधार पर परंपराओं की प्रासंगिकता तथा नैतिकता पर बराबर सवाल उठाती है । यह बराबर विज्ञान-सम्मत नवाचार और आलोचनात्मक नवीन सोच की वकालत करती हुई, निरंतर प्रगति की भावना से युक्त होती है । आधुनिकता अक्सर परंपरागत स्थापित मानदंडों को पुरातन का हवाला देकर उन्हें चुनौती देती रहती है, जिनका उद्देश्य सामाजिक परंपराओं को मानवीय जरूरतों के अनुरूप और अधिक न्याय-संगत, विज्ञान-सम्मत, कुछ सरल और जन समावेशी बनाना होता है । इस प्रकार से आधुनिकता को विज्ञान, समुदाय की रक्षा व लाभ की प्राप्ति, औद्योगीकरण और वैश्विक अर्थव्यवस्था के अनुकूल, जैसी अवधारणाओं को अपनाने के रूप में देखा जा सकता है । उदाहरण के लिए, सती-प्रथा, बाल-विवाह या जाति-पाति व धार्मिक भेद-भाव आदि, जैसी कुप्रथाएँ । आधुनिकता ने उन सामाजिक कुप्रथाओं को सभ्य समाज के लिए कलंक के रूप में प्रमाणित किया और फिर विभिन्न सामाजिक आंदोलनों तथा कानूनी सुधारों के माध्यम से उन्हें या तो संकुचित किया, या फिर उन्हें पूर्णतः नष्ट ही कर दिया है ।
आधुनिकता, मानवहित और मानव के विकास हेतु अक्सर पारंपरिक कुप्रथाओं की आलोचना करती है । उन्हें बदलने के लिए वह सदैव उद्दत भी रहती है । इसलिए नहीं, कि आधुनिकता परिवर्तन-प्रवृति से ग्रस्त है, बल्कि इसलिए कि हर भूत से वर्तमान विज्ञान-सम्मत और उन्नत हुआ करता है । इसी तरह वर्तमान से भविष्य सदैव उन्नत रहेगा । लेकिन वर्तमान या भविष्य के उन्नत स्वरूप उस भूतकालिक आधारशीला पर ही अवलंबित रहते हैं । कभी-कभी परंपराओं से आधुनिकता प्रेरणा लेती है और समकालीन उन्नत ढाँचे में उन्हें ढालने की कोशिश करती है । इस प्रकार आधुनिकता एक प्रगतिशील बल की ओर निर्देशित करती है, जो मानव जाति को अज्ञानता और तर्कहीनता से मुक्त कराती है ।
आधुनिकीकरण से मानव जीवन सहित वातावरण की गुणवत्ता में निरंतर सुधार हुए हैं । इससे प्रभूत आधुनिक एकाकी जीवन प्रणाली में व्यक्ति अपनी कमाई का उपयोग अपनी इच्छानुसार निज तथा अपने परिजन की उन्नति के पीछे करता है । जीवन के हर क्षेत्र में नवीन तकनीकि का विकास हुआ है । आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में नई-नई दवाइयों की उपलब्धता के कारण गंभीर बीमारियों का इलाज संभव हुआ है । फलतः बहुत-सी घातक बीमारियों का उन्मूलन हो गया है । बेहतर स्वस्थ्य-सामग्री के कारण सत्तर-अस्सी वर्ष का वयोवृद्ध भी 25-30 वर्ष का नवजवान प्रतीत होता है । आधुनिकता युक्त वैज्ञानिक पद्धति से पैदावार में लगातार हो रही वृद्धि के कारण भुखमरी में बहुत कमी आई है । यातायात संबंधी अत्यंत ही सरल और सुगम साधन उपलब्ध हुए हैं । आज कोई सुबह की चाय कोलकाता में, तो दोपहर का भोजन दुबई में, शाम का नास्ता इटली के रोम में और रात्रि का भोजन लंदन में ले सकता है । आधुनिकता के कारण सारी दुनिया आज सिमट कर मात्र कुछ घंटों की दूरी की हो गई है । अधिकांश लोगों के घरों में आधुनिकता के विभिन्न साधन उपलब्ध है । आधुनिक संसाधनों के कारण आज एक कमरे में हिमालय की पर्वतीय ठंडी, दूसरे कमरे में सहारा रेगिस्तान के उष्ण गर्मी, तीसरे कमरे में उत्तल-तरंगों से युक्त समुद्री उमस भरी हवाएँ, तो चौथे कमरे में मासिनराम (मेघालय) के निरंतर बरसते जल-झालरों का, और पाँचवे कमरे में फूलों की घाटी के सुरभित वसंत का आनंद लिया जा सकता है । ऑनलाइन शिक्षा और डिजिटल लर्निंग प्लेटफ़ॉर्म की उपलब्धता के कारण केवल देश ही नहीं, बल्कि विदेशों से भी शिक्षा-ज्ञान को आसानी से अर्जित किया जा सकता है । मोबाइल और इंटरनेट की मदद से दुनिया को हर किसी ने अपनी मुट्ठी में कर लिया है । जिसके आधार पर दस-बारह वर्ष के बालकों के जागृत बुद्धि-ज्ञान को देखकर आश्चर्य होता है । आधुनिकता के आधुनिक उपकरणों के माध्यम से अब तो अंतरिक्ष-भ्रमण या फिर गंभीर समुद्रीतल-भ्रमण का भी लुफ़त उठाया जा सकता है । मानव-जीवन क्रमशः सरल और सुगम होता ही गया है ।
लेकिन इसके विपरीत आधुनिकता के कारण मानवीय परस्पर प्रेम-सौहार्द्र में कमी आई है । आज सभी कार्य बौद्धिकता के कारण अर्थ-प्रधान हो गए हैं । इसके साथ ही वातावरण में हर दृष्टिकोण से प्रदूषण बढ़ा है । आधुनिकता के नाम पर वनों की कटाई, शहरों की स्थापना, कल-कारखानों की स्थापना, आवागमन के लिए अधिक से अधिक सड़कें व रेलमार्ग का निर्माण और उनके विभिन्न साधनों से जलवायु में भयानक परिवर्तन हो रहे हैं । इसी कारण अल्पवृष्टि के कारण कई क्षेत्रों में सूखा, तो अतिवृष्टि के कारण कई क्षेत्रों में बाढ़ जैसी समस्याएँ, तो कभी भू-कंप और भू-स्खलन की घटनाएँ बढ़ रही हैं । सीमित होते जंगल से वन-प्राणी निकल-निकाल कर ग्राम-नगर की ओर बढ़ रहे हैं । विज्ञान-संगत उपकरणों पर मानवी निर्भरता बढ़ी है । शारीरिक कार्य-क्षमता घटी है । प्रद्योगिक के विकास के साथ ही व्यापार जगत अधिक से अधिक मुनाफा कमाने के उद्देश्य से लगभग सभी वस्तुओं में मिलावट करने लगे हैं, जिसके नकारात्मक परिणाम देखे जा रहे हैं । बड़ी संख्या में लोग तथा प्राणी मर रहे हैं । अमीर और गरीब के बीच आर्थिकजन्य अंतर काफी बढ़ा है । बड़े-बड़े नगरों में एक ओर गगनचुंबी अट्टालिकाएँ हैं, तो दूसरी ओर उनसे ही सटे गरीबों की झोपड़ियाँ और बस्तियाँ हैं, जो उनके मध्य के व्यापक अंतराल को प्रदर्शित कर रहे हैं । उसी के अनुरूप में उनकी जीवन-शैली में भी बहुत अंतर हुआ है । उनमें एक-दूसरे के प्रति तीव्र घृणा की भावना बढ़ी है, जो कभी-कभी हिंसात्मक रूप धारण कर लेती हैं ।
आधुनिकता की चाहत में शहरों में फ्लैट-पद्धति के साथ ही एकाकी जीवन-शैली की सांस्कृतिक बढ़ी है, जिसमें वृद्ध-जनों के लिए स्थान की कमी हुई है । आधुनिक एकल परिवार जीवन-शैली में स्वनिर्भरता के कारण लोग स्वार्थी और संकीर्ण बनते जा रहे हैं । फलतः आस-पड़ोस से अपरिचित-सा, और स्वयं अपने ही फ्लैट में अपने परिजनों से सप्ताहिक बात-विचार कर पाते हैं । एकाकी जीवन जीने के कारण बाल-बच्चों की परवरिश ‘आया’ या ‘भाड़े की माँ’ जैसी संस्कृति पर आधारित हो गई है । ऐसे में माँ-बाप में बच्चों के प्रति वात्सल्य-प्रेम और बच्चों में माँ-बाप के प्रति आत्मीयता तथा जिम्मेवारियाँ वहन में कमी आई है । काम के दबाब और डिजिटल मीडिया के प्रभाव के कारण अधिकांश युवा पीढ़ी पारंपरिक रीति-रिवाजों से निरंतर दूर होते हुए एकाकी जीवन यापन कर रहे हैं । फलतः वृद्धा-आश्रमों की संख्या में बेहताश वृद्धि हो रही है । घर-परिवार से संबंधित सभी समस्याओं का हल या निवारण व्यक्ति को अब अकेले ही करना पड़ रहा है । ऐसे में मानसिक स्वास्थ्य संबंधित समस्याएँ, जैसे तनाव, अवसाद, रक्त-दाब, मधुमेह, हृदयाघात जैसी अनगिनत जानलेवा बीमारियाँ बढ़ी हैं । जिसका प्रत्यक्ष उदाहरण हर एक शहर में भोजन और राशन की दुकानों से, कहीं अधिक दवाइयों की दुकानें और अस्पतालें हैं । सभी स्वार्थ जनित भावना से वशीभूत होकर एक-दूसरे से दुकानदार और ग्राहक के समान व्यवहार करते हैं । यहाँ तक कि अपने पड़ोसियों और अपने भाई-बहनों से भी लोग वैसे ही स्वार्थजन्य व्यवहार करते हैं । फलतः लोगों में सामाजिक दूरियाँ निरंतर बढ़ती ही जा रही है । सोशल मीडिया और डिजिटल स्क्रीन ने लोगों को भीड़ में भी अकेला बना कर उनमें तनाव और अवसाद को बढ़ाया है । ये सभी आधुनिकता के ही दुष्परिणाम हैं ।
मौलिकता और संरचनात्मता के आधार पर ऐसा नहीं है कि परंपरा और आधुनिकता एक दूसरे के प्रबल विरोधी सैद्धांतिक अवधारणाएँ हैं । यदि ये परस्पर समान न हैं, तो ये पूर्णत: भिन्न भी नहीं हैं । परंपरा यदि जड़ है, तो आधुनिकता उसके शाखा-प्रशाखाएँ, पत्ते, फूल-फल आदि हैं । परंपरा भी अपने आप में आधुनिक तत्वों को समाहित करती है और अपने स्वरूप को आधुनिकता के रूप में विकसित करती है । आज भी अनगिनत परंपराएँ समाज में अपने प्राचीन रूप में ही, न केवल जीवित हैं, बल्कि वे समाज को आज भी आवश्यक दिशा-निर्देश कर रही हैं । अनगिनत प्राचीन परंपराओं के स्वरूप को आज विज्ञान भी स्वीकार कर लिया है । देश के कई प्रांतों में गर्मी के दिनों में बासी भात-पानी (पांता-भात) खाने की परंपरा रही है । चिकित्सा-वैज्ञानिकों का मानना है कि बासी भात-पानी में लौह, पोटेशियम, कैल्शियम आदि जैसे कई खनिज पदर्थ होते हैं, जो शारीरिक स्वास्थ्य के लिए बहुत फायदेमंद होते हैं । बासी भात में फाइबर होता है, जो पाचन को बेहतर बनाता है और कब्ज जैसी समस्याओं को कम करने में मदद करता है । इससे शरीर का तापमान नियंत्रित रहता है । इसके साथ ही यह डेंगू-बुखार, चेचक और खसरे को नष्ट करने में सहायक होता है ।
लेकिन यह बात भी सत्य है कि आधुनिक संदर्भों के अनुकूल रहने वाली परंपराएँ, प्रासंगिक और सार्थक बनी रहती है । परंतु कुछ ऐसी भी परम्पराएँ हैं, जो वर्तमान में व्यक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय और वैश्विक माँगों के प्रतिकूल हैं । फलतः वे लगभग निष्प्राण-सी हो गई हैं । ऐसी परंपराओं में आधुनिक माँगों के अनुरूप विज्ञान-सम्मत और न्याय-संगत तत्वों को समाहित कर उन्हें मानव सहित सम्पूर्ण विश्व हेतु कल्याणकारी बनाकर पुनर्जीवित किया जा सकता है । परंपरा के संबंध में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का कहना है, - ‘परंपरा, एक जीवंत प्रक्रिया है, जो अपने परिवेश के अनुसार बदलती रहती है । परंपरा को प्राचीनता का पर्याय नहीं माना जा सकता है, बल्कि यह एक सक्रिय और गतिशील प्रक्रिया है ।’
आधुनिक नवाचार जनित क्रिया-कलाप, प्रारंभ में तो परंपरा और आधुनिकता के संदर्भ में मानवीय और सामाजिक तनाव अवश्य ही पैदा करती है, परंतु समयानुसार वह नवाचार; परंपरा या समाज में पूर्णतः नियोजित हो जाता है । जैसे कि कोई भी नए नियम को लागू करने पर पहले तो, देश भर में उसका विरोध होता है, क्योंकि उससे उनकी जीवन-सम्मत नियमितता में कुछ परिवर्तन या अस्थिरता तो अवश्य ही पैदा हो जाती है । परंतु समयानुसार उस नए नियम का प्रतिरोध क्रमशः कमने लगता है । देशवासी उसे अपनी क्रिया-कलापों में शामिल कर लेते हैं और उसके अनुकूल अभ्यस्त हो जाते हैं । समाज भी उस नवाचार को अपना लेता है । ऐसी ही आधुनिकता के साथ सामंजस्यता को स्थापित कर, परंपराएँ समाज को नए आकार और गति देने लगती हैं । इसी सिद्धांत को अपना कर दुनिया भर के कई समाज समय की माँग के अनुसार अपनी परंपराओं में आवश्यक परिवर्तन करते रहे हैं और वे परवर्तित परंपराएँ मानवीय विकास की गति को तीव्रता प्रदान भी करती रही हैं । अतः परंपराओं को अंधी लाठी से पीटने की आवश्यकता नहीं है, बल्कि उन्हें समयानुरूप सँवारने की आवश्यकता है । कई देशों में क्षीण होती जा रही परम्पराओं को संरक्षित करने के लिए विशेष ठोस प्रयास किए जा रहे हैं ।
जीवन साधने के क्षेत्र में परंपरा और आधुनिकता दोनों का ही अपना अलग-अलग महत्व है । जहाँ परंपरा हृदय स्वरूप है, वहीं आधुनिकता मस्तिष्क स्वरूप है । एक में मातृत्व वत्सल्यता परिलक्षित होती है, वहीं दूसरे में पितृ तुल्य अनुशासनात्मक प्रेम दिखाई देता है । एक हमारा आत्मीय पोषण को प्रदान करता है, तो दूसरा जगत के अनुकूल हमें निर्मित करता है । विज्ञान के बढ़ते हुए चरणों ने इस विराट विश्व को एक संकुचित छोटा-सा ‘ग्राम’ के रूप में बदल दिया है । तो इस विश्व-ग्राम के लिए सभी प्राणियों के अनुकूल आधुनिक विचारों से युक्त सुदृढ़ परंपराओं को निर्मित की जाए, जिसमें आज का मानव पूर्णत: स्वस्थ, सामर्थ्य, सम्पन्न युक्त तनाव रहित जीवन यापन कर सके ।
श्रीराम पुकार शर्मा,
24, बन बिहारी बोस रोड, हावड़ा – 711101 (पश्चिम बंगाल) संपर्क सूत्र – 9062366788 ई-मेल सूत्र – rampukar17@gmail.com
0 comments:
Post a Comment